पटना हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया जिसमें मोहम्मद मुरशिद आलम को अपनी पत्नी नाज़िया शहीन को प्रति माह ₹7,000 भरण- पोषण देने का निर्देश दिया गया था। आलम ने इस आदेश को चुनौती दी थी, यह कहते हुए कि शादी तो 2013 में ही आपसी तलाक (मुबारात) समझौते से खत्म हो चुकी थी।
पृष्ठभूमि
नाज़िया शहीन और मोहम्मद मुरशिद आलम की शादी दिसंबर 2010 में मुस्लिम रीति- रिवाज़ से हुई थी। लेकिन शादी के कुछ ही हफ्तों में शहीन ने आरोप लगाया कि पति और ससुरालवालों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया, जिसके चलते उन्हें मायके लौटना पड़ा। उन्होंने कहा कि उनके पास कोई आय का साधन नहीं है, जबकि आलम सिंगापुर में नौकरी करते थे और अच्छी कमाई के बावजूद उनका खर्च नहीं उठाते थे। इस आधार पर उन्होंने ₹15,000 मासिक भरण-पोषण की मांग की।
दूसरी ओर, आलम ने दावा किया कि शहीन उनके साथ ज़्यादा समय नहीं रही, स्वतंत्र रूप से रह रही थी और उनके चरित्र पर भी सवाल उठाए। उनका कहना था कि साल 2013 में दोनों ने मुबारात यानी आपसी तलाक का समझौता किया था और उस समय ₹1,00,000 अदा किए गए थे जिसमें गुज़ारा, मेहर और इद्दत का खर्च शामिल था। इसलिए अब कोई ज़िम्मेदारी बाकी नहीं है।
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अदालत की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति जितेंद्र कुमार ने मामले की फाइलों को गहराई से देखा। उन्होंने कहा कि आलम यह साबित करने में नाकाम रहे कि कोई वैध तलाक हुआ है। 2013 का जो समझौता पत्र पेश किया गया, उसे अदालत में विधिवत प्रमाणित नहीं किया गया और न ही शहीन को उसका खंडन करने का मौका दिया गया।
अदालत ने साफ कहा- ''सिर्फ समझौते का कागज़ शादी को कानूनी रूप से खत्म नहीं कर सकता जब तक वैध कानूनी पुष्टि न हो।''
न्यायाधीश ने यह भी रेखांकित किया कि मान लीजिए तलाक हो भी गया हो, तब भी दंड प्रक्रिया संहिता (धारा 125) और सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसलों (शाह बानो, दानियल लतीफ़ी) के अनुसार, तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण का अधिकार है, जब तक वह पुनर्विवाह न करे और खुद के पालन- पोषण में सक्षम न हो।
उन्होंने यह भी पाया कि शहीन की कोई आय नहीं है, जबकि आलम पढ़े-लिखे, सक्षम और पहले विदेश में नौकरी कर चुके हैं। आदेश में कहा गया-
''सक्षम पति केवल बहाने बनाकर अपनी कानूनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।''
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निर्णय
अंत में हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा और मोहम्मद मुरशिद आलम को प्रति माह ₹7,000 भरण-पोषण देने का निर्देश कायम रखा। अदालत ने उनकी पुनरीक्षण याचिका को ''निर्थक और निराधार'' बताते हुए खारिज कर दिया।
इस फैसले ने एक बार फिर यह दोहराया कि भरण-पोषण कोई दान नहीं बल्कि कानूनी कर्तव्य है, ताकि कोई महिला सिर्फ इसलिए बेसहारा न रह जाए कि पति बिना ठोस सबूत के तलाक का दावा कर दे।
केस का शीर्षक: मो. मुर्शिद आलम बनाम नाज़िया शाहीन केस नंबर: क्रिमिनल रिवीजन नंबर 1099, 2019