राजस्थान हाईकोर्ट ने हाल ही में यह स्पष्ट किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 170 केवल सीमित रोकथाम अधिकार देती है और इसका उपयोग दंडात्मक कार्रवाई या समानांतर आपराधिक प्रक्रिया के रूप में नहीं किया जा सकता।
यह मामला तब सामने आया जब याचिकाकर्ताओं को संपत्ति से संबंधित एक घटना के बाद BNSS की धारा 170 के तहत गिरफ्तार किया गया। हालांकि उनके पक्ष में एक दीवानी न्यायालय का निर्णय भी था, लेकिन फिर भी उनके खिलाफ दो एफआईआर दर्ज की गईं। कार्यपालक मजिस्ट्रेट ने उन्हें जमानत केवल इस शर्त पर दी कि वे दो चरित्र प्रमाण पत्र प्रस्तुत करें, जिनमें से एक उनके परिवार के सदस्य का हो। जब वे इस शर्त को पूरा नहीं कर सके, तो उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।
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“यह स्पष्ट है कि कार्यपालक मजिस्ट्रेट ने BNSS के अंतर्गत उन्हें प्रदत्त सीमित रोकथाम अधिकारों के अनुसार कार्य करने के बजाय स्वयं को एक संप्रभु के समान अधिकार देने का प्रयास किया — एक संवैधानिक लोकतंत्र के मजिस्ट्रेट के रूप में नहीं बल्कि एक राजा के रूप में मनमानी न्याय करते हुए।” — हाईकोर्ट ने टिप्पणी की।
न्यायमूर्ति फर्ज़ंद अली ने देखा कि यह कार्यवाही कानून के शासन की मूल भावना के विरुद्ध है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि जब एक आपराधिक मामला पहले ही दर्ज हो चुका हो, तो उसके अतिरिक्त धारा 170 के अंतर्गत कोई और रोकथाम कार्यवाही करना दोहरी सज़ा (डबल जियोपार्डी) के समान है।
“एक ही अपराध से संबंधित आपराधिक मामला दर्ज हो जाने के बाद, यदि धारा 170 BNSS के तहत पुनः रोकथाम कार्यवाही की जाती है, तो यह व्यवहार में दोहरी सज़ा के समान है... यह दोहरी कार्यवाही — एक आपराधिक कानून के तहत और दूसरी रोकथाम अधिकार के तहत — अनावश्यक उत्पीड़न पैदा करती है और वैधानिक विवेकाधिकार के दुरुपयोग को दर्शाती है।” — कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत की शर्त के रूप में चरित्र प्रमाण पत्र की मांग को कड़ी आलोचना का विषय बनाया। कोर्ट ने कहा कि इसका कोई कानूनी आधार नहीं है और इसे अधिकारों की अतिशयता (overreach) करार दिया। कोर्ट के अनुसार, यह मांग न केवल अवैध थी बल्कि मनमानी और रोकथाम कानून के सिद्धांतों के विपरीत थी।
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याचिकाकर्ताओं की हिरासत को कोर्ट ने अवैध करार दिया और जमानत की शर्त को अनुचित और असंवैधानिक बताया। कोर्ट ने कार्यपालक मजिस्ट्रेट का आदेश रद्द कर दिया और राज्य सरकार को विभागीय जांच का निर्देश दिया। इस जांच की रिपोर्ट छह महीने के भीतर प्रस्तुत करने को कहा गया। आदेश की प्रतियां पुलिस महानिदेशक और गृह विभाग के प्रमुख सचिव को भी भेजी गईं, ताकि भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं को रोका जा सके।
“रोकथाम गिरफ्तारी दंडात्मक कार्रवाई का साधन नहीं है और न ही यह सामान्य आपराधिक प्रक्रिया का विकल्प है।” —
कोर्ट ने कहा, और चेतावनी दी कि जहां कोई तत्काल हिंसा का खतरा न हो, वहां रोकथाम शक्तियों का ऐसा दुरुपयोग सार्वजनिक हित को नुकसान पहुंचाता है।
शीर्षक: मोहम्मद आबिद एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य
याचिकाकर्ता(ओं) के लिए: श्री दिविक माथुर
प्रतिवादी(ओं) के लिए: श्री दीपक चौधरी, एएजी श्री श्री राम चौधरी द्वारा सहायता प्राप्त श्री बंसीलाल, आरपीएस, एसीपी मुख्यालय जोधपुर