हाल ही में आए एक फैसले में राजस्थान हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस निर्णय को बरकरार रखा जिसमें वादियों की उस अर्जी को खारिज कर दिया गया था जिसमें उन्होंने मूल मुकदमा दायर करने के 13 साल बाद बिक्री विलेख की प्रमाणित प्रति रिकॉर्ड पर लाने की मांग की थी।
यह मामला एक भूमि विवाद से संबंधित है, जिसमें वादियों ने आरोप लगाया था कि एक भूमि जो सार्वजनिक उपयोग के लिए छोड़ी गई थी, उसे प्रतिवादी द्वारा धोखाधड़ी से बेच दिया गया। वादियों ने 2011 में दाखिल की गई वाद पत्रिका के साथ बिक्री विलेख की एक फोटोकॉपी संलग्न की थी, लेकिन उन्होंने प्रमाणित प्रति प्रस्तुत करने के लिए 2024 तक कोई कदम नहीं उठाया।
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यह अर्जी सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश VII नियम 14 के तहत दाखिल की गई थी। हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए इसे खारिज कर दिया कि वादियों द्वारा अत्यधिक देरी और लापरवाही बरती गई है। इस निर्णय को बाद में हाईकोर्ट में चुनौती दी गई।
न्यायमूर्ति रेखा बोराणा ने याचिका खारिज करते हुए कहा:
"कोर्ट का यह मानना है कि केवल इस आधार पर कि मामला वादियों के साक्ष्य चरण में है, वादियों को ऐसा कोई मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं है कि वे वह दस्तावेज़ प्रस्तुत करें जिसकी जानकारी उन्हें वाद दायर करने के समय से ही थी।"
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कोर्ट ने आगे यह भी टिप्पणी की:
"प्रमाणित प्रति प्राप्त करने के लिए वर्ष 2024 से पहले कोई कदम नहीं उठाए गए। यह देखते हुए कि वादी 08.09.2011 को वाद दायर करने के समय से ही उस बिक्री विलेख के बारे में जानते थे, फिर भी उन्होंने 13 वर्षों तक प्रमाणित प्रति रिकॉर्ड पर नहीं रखी, ट्रायल कोर्ट द्वारा अर्जी को खारिज किया जाना उचित था।"
इसके अतिरिक्त, यह भी पाया गया कि वादियों को 13 अवसर पहले ही दिए जा चुके थे अपने साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए, जिससे यह देरी और भी अधिक अनुचित मानी गई।
शीर्षक: एल.आर. अवतार सिंह एवं अन्य बनाम एल.आर. गजानंद एवं अन्य