एक चौंकाने वाले फैसले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने तीन व्यक्तियों - नाज़िम, अफ़ताब और अर्मान अली - को बरी कर दिया, जो 2007 में उत्तराखंड में एक दस वर्षीय बालक की निर्मम हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे थे।
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न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने 6 अक्टूबर 2025 को यह फैसला सुनाया, जिसमें उन्होंने अभियोजन पक्ष के मामले में “गंभीर खामियां और असंगतियां” पाईं।
अदालत ने कहा, “अभियोजन पक्ष इस बात को साबित करने में असफल रहा कि परिस्थितियों की श्रृंखला केवल अभियुक्तों के अपराध की ओर ही इशारा करती है।”
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पृष्ठभूमि
यह मामला उस समय शुरू हुआ जब 6 जून 2007 को किशनपुर के पास अपने परिवार के आम के बाग में छोटे मुन्तियाज़ अली का शव मिला। उसके पिता नन्हे ख़ान ने उसे गले में रस्सी बंधी हुई, हाथ पीछे से बंधे और पास में एक खून से सना कुल्हाड़ी पड़ी हुई पाई।
पहली एफआईआर में छह ग्रामीणों के नाम थे जिनसे परिवार की पुरानी दुश्मनी थी, लेकिन नाज़िम और अफ़ताब का नाम उसमें नहीं था। बाद में जांच के दौरान पुलिस ने उनके साथ अर्मान अली का नाम भी जोड़ा और तीनों पर हत्या, आपराधिक साजिश और सबूत मिटाने का आरोप लगाया गया।
काशीपुर की सत्र अदालत ने 2014 में तीनों को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई, जिसे 2017 में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने बरकरार रखा। हालांकि, तीनों ने अपनी बेगुनाही पर ज़ोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।
अदालत के अवलोकन
सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था और उस श्रृंखला की हर कड़ी या तो कमजोर थी या गायब।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि नाज़िम और अफ़ताब का नाम एफआईआर में नहीं होना “गंभीर संदेह पैदा करता है” और यह उनके बाद के फंसाए जाने की ओर इशारा करता है।
अदालत ने मुख्य गवाहों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाया। एक गवाह, तौहीद अली ने दावा किया कि उसने एक दावत में हत्या की साजिश सुनी थी, लेकिन उसने यह बात किसी को नहीं बताई - यहां तक कि मृतक के पिता को भी नहीं। दूसरे गवाह ने कहा कि उसने “लड़के को अभियुक्तों के साथ देखा था”, लेकिन पहचान परेड (Test Identification Parade) नहीं कराई गई - जो आपराधिक मुकदमों में एक बुनियादी प्रक्रिया है।
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अदालत ने टिप्पणी की, “यह मानना कठिन है कि आरोपी लोग खुलेआम दावत में हत्या की योजना बनाएंगे, और वह भी इतने लोगों की मौजूदगी में।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘लास्ट सीन’ थ्योरी - यानी मृतक को आखिरी बार अभियुक्तों के साथ देखा गया था - इस मामले में लागू नहीं होती क्योंकि देखे जाने और शव मिलने के बीच का अंतराल बहुत लंबा था।
इसके अलावा, कुल्हाड़ी और रस्सी पर की गई डीएनए जांच भी निष्कर्षहीन रही और अभियुक्तों से कोई मेल नहीं मिला। बेंच ने दोहराया, “सिर्फ शक, चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, साक्ष्य का विकल्प नहीं हो सकता।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय दोनों के फैसले को रद्द करते हुए तीनों अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या), 201 (सबूत मिटाना) और 120-बी (साजिश) के आरोपों से बरी कर दिया।
पीठ ने कहा, “रिकॉर्ड पर मौजूद परिस्थितियाँ किसी भी अन्य यथोचित संभावना - जिसमें उनकी निर्दोषता भी शामिल है - को बाहर नहीं करतीं।”
चूंकि अभियुक्त पहले से ही ज़मानत पर थे, अदालत ने उनके ज़मानती बांड और ज़मानतदारों को तत्काल मुक्त करने का आदेश दिया।
इस फैसले के साथ, एक छोटा उत्तराखंडी गाँव जो लगभग दो दशक से इस दर्दनाक मामले की छाया में था, अब राहत की सांस ले सकता है - भले ही उस बच्चे की दुखद मौत की सच्ची कहानी शायद कभी सामने न आ पाए।
Case: Nazim & Others v. State of Uttarakhand
Citation: 2025 INSC 1184 | Criminal Appeal No. 715 of 2018
Appellants: Nazim, Aftab, and Arman Ali
Respondent: State of Uttarakhand
Date of Judgment: October 6, 2025