कोर्ट रूम नंबर ___ में उस वक्त गहरी खामोशी छा गई जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला पढ़ना शुरू किया। मामला गुजरात में एक चार साल की बच्ची के साथ हुए यौन उत्पीड़न से जुड़ा था-ऐसा अपराध जो स्वाभाविक रूप से समाज को झकझोर देता है। लेकिन पीठ ने साफ कहा कि भावनात्मक आक्रोश, सबूत की जगह नहीं ले सकता। करीब 13 साल जेल में बिताने के बाद आरोपी को रिहा किया गया, इसलिए नहीं कि अपराध छोटा था, बल्कि इसलिए कि अदालत के अनुसार जांच और सुनवाई, दोनों ही न्याय की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं।
पृष्ठभूमि
यह मामला जून 2013 में कालोल कस्बे की एक घटना से शुरू हुआ। एक स्थानीय व्यक्ति ने दावा किया कि उसने देर रात चार लड़कों को एक नग्न और खून से लथपथ बच्ची को ले जाते देखा। बच्ची को अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने यौन उत्पीड़न की पुष्टि की। इसके बाद “अज्ञात व्यक्तियों” के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई।
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कुछ दिनों बाद मनोजभाई जेठाभाई परमार को गिरफ्तार कर भारतीय दंड संहिता की अपहरण, बलात्कार और सबूत नष्ट करने की धाराओं के साथ-साथ पोक्सो अधिनियम के तहत आरोपित किया गया। ट्रायल कोर्ट ने 2015 में उसे दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 2016 में गुजरात हाई कोर्ट ने भी इस सजा को बरकरार रखा।
जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तब तक अपीलकर्ता लगभग तेरह साल जेल में काट चुका था।
अदालत की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया। इसे “गंभीर और व्यथित करने वाला मामला” बताते हुए पीठ ने कहा कि जांच “बुरी तरह से बिगाड़ी गई” और ट्रायल एक यांत्रिक प्रक्रिया बनकर रह गया।
अदालत ने सबसे पहले एफआईआर पर सवाल उठाया। सूचना देने वाले व्यक्ति ने घटना की पूरी जानकारी होने का दावा किया था, इसके बावजूद शिकायत में न तो आरोपी का नाम था और न ही उन चार लड़कों का, जिन्होंने कथित तौर पर बच्ची को आखिरी बार देखा था। पीठ ने कहा, “यदि आरोपों में जरा भी सच्चाई होती, तो ऐसे अहम तथ्य गायब नहीं होते।”
तथाकथित “आखिरी बार साथ देखे गए” गवाहों को अगले दिन ही पेश किया गया। उनमें से दो बाद में अपने बयान से पलट गए। कोर्ट ने कहा कि बाकी गवाहों ने अलग-अलग टाइमलाइन बताईं और “बहुत ही अजीब” तरीके से पेश आए, जिसमें पुलिस को तुरंत इन्फॉर्म न करना या घायल बच्चे को कपड़े भी न देना शामिल था।
पीठ ने स्पष्ट किया कि आपराधिक मामलों का फैसला अटकलों के आधार पर नहीं किया जा सकता। अदालत ने टिप्पणी की, “‘हो सकता है’ और ‘निश्चित रूप से’ दोषी होने के बीच की दूरी बहुत लंबी है, जिसे अनुमान से नहीं पाटा जा सकता।”
अदालत ने यह भी कहा कि ऐसे संवेदनशील मामलों में जांच की चूक केवल आरोपी को ही नहीं, बल्कि पूरे न्याय तंत्र को नुकसान पहुंचाती है।
फैसला
अदालत ने माना कि अभियोजन पक्ष दोष सिद्ध करने के लिए परिस्थितियों की एक विश्वसनीय और पूरी कड़ी स्थापित करने में विफल रहा। इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि और सजा दोनों को रद्द कर दिया। आरोपी को सभी आरोपों से बरी करते हुए तत्काल रिहा करने का आदेश दिया गया, और यहीं पर मामला अदालत के अंतिम आदेश के साथ समाप्त हो गया।
Case Title: Manojbhai Jethabhai Parmar (Rohit) vs State of Gujarat
Case No.: Criminal Appeal No. 2973 of 2023
Case Type: Criminal Appeal (Against Conviction under IPC & POCSO Act)
Decision Date: 2025 (Reported as 2025 INSC 1433)










