शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट की भीड़भाड़ वाली अदालत में एक अहम फैसला सुनाया गया, जिसने वर्षों से चली आ रही कानूनी उलझन को साफ कर दिया। पूरे मामले का मूल सवाल बेहद सीधा था लेकिन असर व्यापक-क्या सरकारी कंपनियों के पुराने किरायेदार राज्य के किराया कानूनों से सुरक्षा पा सकते हैं, या उन्हें सख्त पब्लिक प्रिमाइसेज़ (PP) एक्ट, 1971 के तहत ही बेदखल होना पड़ेगा? जस्टिस एन.वी. अंजारिया की अगुवाई वाली पीठ ने विस्तृत निर्णय सुनाया और सुहास एच. पोफले के दो-जज फैसले को पलटते हुए PP एक्ट की सर्वोच्चता बहाल कर दी।
पृष्ठभूमि
यह मामला एलआईसी और वीटा प्राइवेट लिमिटेड के बीच लंबे समय से चल रहे विवाद से पैदा हुआ था। 1957 में मुंबई में एक फ्लैट में किराए पर रखे गए वीटा प्रा. लि. को एलआईसी ने किराया समाप्त करते हुए PP एक्ट के तहत बेदखली की कार्यवाही शुरू की। लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए बेदखली रद्द कर दी, और अपने फैसले में सुहास एच. पोफले पर भारी भरोसा किया।
Read also:- दिल्ली हाई कोर्ट ने इंडिगो उड़ान संकट पर केंद्र को फटकार लगाई, जवाबदेही और तुरंत मुआवज़ा सुनिश्चित
उस पुराने फैसले ने किरायेदारों को दो वर्गों में बांट दिया था-1958 से पहले आए किरायेदार और उसके बाद आए किरायेदार। कोर्ट ने कहा था कि PP एक्ट केवल बाद वाले पर लागू होगा। इसके कारण एलआईसी, राष्ट्रीयकृत बैंकों और अन्य सरकारी उपक्रमों के हजारों पुरानी तिथि वाले किरायेदार PP एक्ट से बच गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने अब स्पष्ट कहा कि यह तर्क संविधान पीठ के पहले के फैसलों से बिल्कुल मेल नहीं खाता।
अदालत की टिप्पणियाँ
पीठ का लहजा कड़ा था। अदालत ने कहा कि सुहास एच. पोफले ने “बड़ी पीठों के बाध्यकारी निर्णयों को नज़रअंदाज़” किया। कोर्ट ने टिप्पणी की, “दो-जज वाली पीठ… बड़ी पीठ के निर्णयों के विपरीत नहीं जा सकती।” इसे न्यायिक अनुशासन का उल्लंघन बताया गया।
कोर्ट ने 1990 के अपने ऐतिहासिक अशोक मार्केटिंग फैसले को दोहराया, जिसमें कहा था कि PP एक्ट और किराया नियंत्रण कानून दोनों अपने क्षेत्र में विशेष कानून हैं, लेकिन PP एक्ट बाद में बना है और उसका उद्देश्य सार्वजनिक संपत्ति की त्वरित सुरक्षा है-इसलिए वह प्रभावी रूप से ऊपर होगा।
Read also:- सुप्रीम कोर्ट ने NCDC की टैक्स कटौती की मांग ठुकराई, कहा-डिविडेंड और जमा ब्याज 'लॉन्ग-टर्म फाइनेंस'
निर्णय लिखते समय एक उल्लेखनीय टिप्पणी भी आई-“पब्लिक प्रिमाइसेज़ एक्ट जनता की संपत्ति की रक्षा के लिए है, न कि इसलिए कि कोई निजी मालिक बाद में सरकारी निगम बन गया और किरायेदारी अनिश्चितकाल तक चलती रहे।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि सुहास एच. पोफले ने PP एक्ट की धारा 2(g) को गलत तरीके से पढ़कर “अधिकार” पैदा कर दिए, जिनका कानून में कोई आधार नहीं था। मुख्य बात यह है कि किरायेदार कब आया यह नहीं, बल्कि क्या बेदखली के समय वह परिसर ‘पब्लिक प्रिमाइसेज़’ है या नहीं।
कोर्ट ने 1980 के जैन इंक फैसले को भी दोहराया-“महत्व इस बात का है कि व्यक्ति PP एक्ट लागू होने के समय परिसर में कब्जे में है या नहीं।”
Read also:- सुप्रीम कोर्ट ने समय सीमा चूकने पर मध्यस्थ बदला, कहा-सेक्शन 29A के तहत मंडेट स्वतः समाप्त
फैसला
अंत में कोर्ट ने वर्षों पुरानी बहस को समाप्त करते हुए कहा-
- सुहास एच. पोफले गलत, अवैध और अब लागू नहीं माना जाएगा।
- PP एक्ट सभी राज्य किराया कानूनों पर प्रधानता रखता है, चाहे किराया किसी भी वर्ष में शुरू हुआ हो।
- एलआईसी, राष्ट्रीयकृत बैंकों और सरकारी कंपनियों के किरायेदार सिर्फ पुरानी तिथि के कारण राज्य किराया कानून की सुरक्षा नहीं ले सकते।
इसके साथ कोर्ट ने कानूनी स्थिति बिल्कुल स्पष्ट कर दी-जब भी सार्वजनिक संपत्ति की बेदखली की बात होगी, PP एक्ट ही लागू होगा।
आदेश का अंत बड़े पीठ के फैसलों की बाध्यता दोहराते हुए होता है और सभी विपरीत व्याख्याओं को खारिज करता है।
Case Title: Life Insurance Corporation of India & Anr. vs. Vita Pvt. Ltd. & Others
Case No.: Civil Appeal No. 2638 of 2023 (with connected appeals)
Case Type: Civil Appeal – Interpretation of Public Premises Act vs State Rent Control Laws
Decision Date: 2025 (as per judgment header: 2025 INSC 1419)










