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सुप्रीम कोर्ट ने यूएपीए के तहत गिरफ्तारी रद्द की, कहा कि गिरफ्तारी का लिखित आधार न देना संवैधानिक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन है

Shivam Y.

सुप्रीम कोर्ट ने अहमद मंसूर की यूएपीए के तहत की गई गिरफ़्तारियों को रद्द कर दिया और कहा कि लिखित आधार न देना अनुच्छेद 22 और धारा 43बी के अधिकारों का उल्लंघन है। - अहमद मंसूर और अन्य बनाम राज्य, सहायक पुलिस आयुक्त और अन्य द्वारा प्रतिनिधित्व

सुप्रीम कोर्ट ने यूएपीए के तहत गिरफ्तारी रद्द की, कहा कि गिरफ्तारी का लिखित आधार न देना संवैधानिक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन है

गिरफ्तार व्यक्तियों के संवैधानिक अधिकारों को मज़बूती देने वाले एक महत्वपूर्ण फैसले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अहमद मंसूर और अन्य की यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) के तहत की गई गिरफ्तारी और रिमांड को निरस्त कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तारी के समय लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार न देना कानून का उल्लंघन है और इसे बाद में किसी न्यायिक स्पष्टीकरण से ठीक नहीं किया जा सकता।

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पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता अहमद मंसूर और उनके सह-आरोपी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153A, 153B, 120-B और 34 सहित यूएपीए की धारा 13 और 18 के तहत मामला दर्ज किया गया था। उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जिसमें अदालत ने यह स्वीकार करने के बावजूद गिरफ्तारी को बरकरार रखा था कि गिरफ्तारी के लिखित आधार उन्हें गिरफ्तारी के समय नहीं दिए गए थे।

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सुनवाई के दौरान राज्य पक्ष ने तर्क दिया कि गिरफ्तारी के आधार "मौखिक रूप से" मजिस्ट्रेट द्वारा रिमांड के समय बताए गए थे और बाद में उनके वकील को इसकी प्रति दी गई थी। वहीं, बचाव पक्ष का कहना था कि इस प्रकार की बाद में दी गई व्याख्या कानून द्वारा अनिवार्य तत्काल लिखित सूचना का स्थान नहीं ले सकती।

अदालत की टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरश और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने हाईकोर्ट के निर्णय से असहमति जताते हुए पंकज बंसल बनाम भारत संघ (2024) और प्रबीर पुरकायस्थ बनाम राज्य (दिल्ली एनसीटी) (2024) जैसे पूर्ववर्ती फैसलों का हवाला दिया।

इन निर्णयों से उद्धृत करते हुए पीठ ने दोहराया कि कानून आरोपी को गिरफ्तारी के समय बिना किसी अपवाद के लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार देना अनिवार्य बनाता है।

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न्यायालय ने कहा -

“जिस न्यायालय के समक्ष गिरफ्तार व्यक्ति को पेश किया जाता है, उसके द्वारा दी गई व्याख्या कभी भी गिरफ्तारी के समय लिखित आधार प्रदान करने की पर्याप्त अनुपालना नहीं हो सकती।”

पीठ ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत प्रत्येक गिरफ्तार व्यक्ति को अपनी गिरफ्तारी के सटीक कारण जानने का अधिकार है।

अदालत ने “गिरफ्तारी के कारण” और “गिरफ्तारी के आधार” के बीच का अंतर भी स्पष्ट किया। “गिरफ्तारी के कारण” आम प्रक्रियात्मक कारण होते हैं - जैसे अपराध रोकना या सबूत सुरक्षित करना - जबकि “गिरफ्तारी के आधार” में वे विशेष तथ्य शामिल होने चाहिए जिनके कारण व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया।

आदेश में कहा गया,

“गिरफ्तारी के आधार आरोपी के व्यक्तिगत होते हैं और उन्हें गिरफ्तारी के सामान्य कारणों से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।”

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फैसला

विहान कुमार बनाम हरियाणा राज्य तथा बाद के मामलों जैसे कसिरेड्डी उपेंद्र रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि मंसूर के मामले में अनिवार्य कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।

पीठ ने कहा,

“ऐसे परिप्रेक्ष्य में हम यह मानने के इच्छुक हैं कि यह अपील केवल इस आधार पर स्वीकार की जानी चाहिए कि गिरफ्तारी के समय लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार प्रदान करने के प्रावधान का पालन नहीं किया गया।”

इसलिए, अदालत ने हाईकोर्ट का आदेश और गिरफ्तारी दोनों को अवैध घोषित करते हुए निरस्त कर दिया। हालांकि, राज्य को यह स्वतंत्रता दी गई कि यदि कोई वैध मामला बनता है तो वह “कानून के अनुसार पुनः कार्रवाई” कर सकता है।

आदेश का समापन एक संक्षिप्त लेकिन सशक्त संदेश के साथ हुआ - प्रक्रिया संबंधी अधिकार कोई औपचारिकता नहीं बल्कि मनमानी शक्तियों के विरुद्ध आवश्यक सुरक्षा हैं।

Case Title: Ahmed Mansoor & Others vs. The State, represented by Assistant Commissioner of Police & Another

Case Number: Criminal Appeal No. 4505 of 2025

Date of Judgment: 14 October 2025

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