सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को केरल से जुड़े एक लंबे पारिवारिक विवाद पर अंतिम विराम लगा दिया। अदालत ने 1988 की एक पंजीकृत वसीयत को बहाल करते हुए निचली अदालतों के उन फैसलों को पलट दिया, जिनमें पिता की संपत्ति को बच्चों के बीच बांटने का आदेश दिया गया था। नई दिल्ली में बैठी पीठ ने कहा कि वसीयत को तकनीकी और खिंचे हुए तर्कों के आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए था।
पृष्ठभूमि
यह मामला एन.एस. श्रीधरन की संपत्ति से जुड़ा था, जिन्होंने 26 मार्च 1988 को एक वसीयत बनाई थी। इस वसीयत में उन्होंने अपनी नौ संतानों में से आठ को संपत्ति दी थी, जबकि एक बेटी को इससे बाहर रखा गया था। बताया गया कि उस बेटी ने समुदाय से बाहर विवाह किया था। वसीयत अगले ही दिन पंजीकृत की गई थी, जब उप-रजिस्ट्रार स्वयं उनके घर जाकर पंजीकरण की प्रक्रिया पूरी की।
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इसके कुछ समय बाद, 1990 में, एक बेटे ने संपत्ति के शांतिपूर्ण कब्जे की सुरक्षा के लिए एक साधारण निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) का मुकदमा दायर किया। उस मामले में वसीयत की एक प्रति पेश की गई थी, लेकिन बेटी ने उस मुकदमे का विरोध नहीं किया। इसके बावजूद, लगभग दो दशक बाद, 2011 में उसने दीवानी अदालत में पिता की संपत्ति के बंटवारे की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया और दावा किया कि वसीयत कानूनी रूप से साबित नहीं की गई है।
ट्रायल कोर्ट और बाद में केरल हाईकोर्ट ने उसकी दलील स्वीकार कर ली और एक जीवित गवाह की गवाही में कथित कमियों के आधार पर वसीयत को अविश्वसनीय मान लिया।
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अदालत की टिप्पणियां
दो भाइयों द्वारा दायर अपीलों पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गवाह की गवाही को नए सिरे से परखा, जिसे वसीयत बनने के करीब 24 साल बाद अदालत में दर्ज किया गया था। पीठ ने माना कि इतने लंबे अंतराल के बाद तारीखों या घर आने-जाने को लेकर मामूली भ्रम होना स्वाभाविक है।
पीठ ने कहा, “गवाह ने स्पष्ट रूप से बताया कि वसीयत पर हस्ताक्षर के समय स्वयं वह, टेस्टेटर और दूसरा गवाह सभी मौजूद थे और सभी ने दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे।” अदालत ने हाईकोर्ट की इस राय को खारिज कर दिया कि जिरह (क्रॉस-एग्ज़ामिनेशन) में दिए गए उत्तरों का महत्व कम होता है।
अदालत ने यह भी साफ किया कि किसी व्यक्ति की वसीयत के पीछे उसके निजी कारणों पर अदालत को राय नहीं देनी चाहिए। पीठ के शब्दों में, अदालत “खुद को टेस्टेटर की जगह रखकर” उसके फैसलों को नहीं परख सकती। यदि वसीयत वैध रूप से बनाई गई है, तो संपत्ति का बंटवारा न्यायसंगत है या नहीं, यह सवाल गौण हो जाता है।
साथ ही, अदालत ने पाया कि वसीयत बनाते समय टेस्टेटर की मानसिक या शारीरिक स्थिति को लेकर कोई गंभीर संदेह नहीं था।
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फैसला
अपीलों को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट-दोनों के फैसले रद्द कर दिए। अदालत ने 1988 की वसीयत को विधिवत सिद्ध मानते हुए बंटवारे का मुकदमा खारिज कर दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जिस बेटी को वसीयत में बाहर रखा गया था, उसका अपने पिता की उन संपत्तियों पर कोई अधिकार नहीं है, जो वैध रूप से अन्य भाई-बहनों को दी गई थीं।
Case Title: K. S. Dinachandran vs. Shyla Joseph & Others K. S. Dinachandran
Case No.: Civil Appeal arising out of SLP (C) Nos. 11057–11058 of 2025
Case Type: Civil Appeal (Will / Partition Dispute)
Decision Date: December 17, 2025









