भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने के. प्रभाकर हेगड़े बनाम बैंक ऑफ बड़ौदा (सिविल अपील संख्या 6599/2025) में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है, जिसमें कहा गया है कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन अपने आप में ही पक्षपात है और इसे "कोई नुकसान साबित नहीं हुआ" कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
के. प्रभाकर हेगड़े ने 1959 में विजय बैंक (बाद में बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय) में नौकरी शुरू की और दिल्ली में ज़ोनल हेड तक पदोन्नत हुए। 1999 में उन पर अस्थायी ओवरड्राफ्ट (TOD) मंजूरी देने में अनियमितताओं का आरोप लगाते हुए नोटिस जारी किया गया, जिसमें ₹15 लाख का एक ओवरड्राफ्ट एम/एस कुनाल ट्रैवल्स प्रा. लि. को देने का मामला भी शामिल था।
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विभागीय जांच के बाद जुलाई 2002 में उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया, जबकि वे 2006 में सेवानिवृत्त हुए। 2003 में उनकी अपील भी खारिज कर दी गई।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के एकल पीठ ने 2009 में बर्खास्तगी रद्द कर दी और उन्हें सेवानिवृत्ति लाभ देने का आदेश दिया, लेकिन 2021 में डिवीजन बेंच ने इसे पलटते हुए बर्खास्तगी बहाल कर दी। इसके बाद हेगड़े ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट ने तीन प्रमुख मुद्दों पर विचार किया:
- क्या प्रारंभिक जांच रिपोर्ट न देने से अपीलकर्ता को नुकसान हुआ?
- क्या विजय बैंक विनियम 6(17) के तहत परिस्थितियों पर प्रश्न न पूछे जाने से जांच अवैध हो गई?
- क्या सेवानिवृत्ति के बाद भी अनुशासनात्मक कार्यवाही जारी रखी जा सकती है?
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने फैसला सुनाते हुए एस.एल. कपूर बनाम जगमोहन, ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन, तुलसीराम पटेल मामला और ए.आर. अंतुले बनाम आर.एस. नायक जैसे पूर्व संवैधानिक पीठ के फैसलों पर भरोसा जताया।
न्यायालय ने दोहराया:
“प्राकृतिक न्याय का पालन न करना अपने आप में ही किसी व्यक्ति के लिए पक्षपात है, और इसके लिए अलग से नुकसान साबित करने की आवश्यकता नहीं है।”
प्रारंभिक जांच रिपोर्ट पर न्यायालय ने कहा कि चूंकि जांच अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में इस पर भरोसा नहीं किया, इसलिए इसे न देना नुकसान नहीं माना जा सकता। लेकिन विनियम 6(17) के तहत आरोपित अधिकारी से साक्ष्यों पर प्रश्न पूछना अनिवार्य कर्तव्य था। ऐसा न करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है।
न्यायालय ने यह भी पाया कि केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) की बर्खास्तगी संबंधी सिफारिश को बिना उपलब्ध कराए ही माना गया, जिससे पूरी प्रक्रिया दूषित हो गई।
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच का आदेश और अनुशासनात्मक बर्खास्तगी रद्द कर दी। इसके साथ ही एकल पीठ का आदेश बहाल किया गया, जिसके तहत हेगड़े को सभी सेवानिवृत्ति लाभ ऐसे मिलेंगे मानो उन्हें कभी बर्खास्त किया ही न गया हो।
केस का शीर्षक: के. प्रभाकर हेगड़े बनाम बैंक ऑफ बड़ौदा
केस संख्या: 2025 की सिविल अपील संख्या 6599