इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने 2006 अयोध्या फायरिंग केस में आरोपी दो व्यक्तियों की बरी को चुनौती देने वाली दो अपीलों-एक शिकायतकर्ता द्वारा और दूसरी राज्य सरकार द्वारा दायर-को खारिज कर दिया है। न्यायमूर्ति रजनीश कुमार और न्यायमूर्ति राजीव सिंह की खंडपीठ ने 17 अक्टूबर 2025 को यह फैसला सुनाया, जिसमें उन्होंने कहा कि विशेष न्यायाधीश (ईसी एक्ट), फैजाबाद के 2012 के फैसले में कोई कानूनी त्रुटि नहीं है। अदालत ने प्रमोद सिंह और विकास सिंह को आईपीसी की धारा 307 (हत्या का प्रयास), 504 और 506 के आरोपों से बरी करने के ट्रायल कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया।
पृष्ठभूमि
यह मामला 28 मई 2006 का है जब अयोध्या के कोतवाली थाने में एक लिखित शिकायत दर्ज की गई थी। शिकायतकर्ता रामकांत यादव ने आरोप लगाया कि ब्लॉक प्रमुख के चुनाव के दौरान विकास सिंह और उसके सहयोगियों ने उसके भाई रविकांत यादव पर उनके घर के सामने गोली चलाई। आरोप था कि यह फायरिंग स्थानीय राजनीतिक रंजिश और चुनावी दबाव का नतीजा थी।
एफआईआर के अनुसार, हमलावर दो मोटरसाइकिलों पर आए, गोलियां चलाईं और भाग गए। इस घटना में रविकांत यादव के गले के पास गोली लगी और वह गंभीर रूप से घायल हो गए। केस कई सालों तक अदालतों में चला, और आखिरकार 2012 में ट्रायल कोर्ट ने मेडिकल और चश्मदीद गवाहों के बयानों में विरोधाभास के चलते दोनों आरोपियों को बरी कर दिया।
अदालत के अवलोकन
सुनवाई के दौरान अपीलकर्ता पक्ष ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने प्रत्यक्षदर्शी गवाहों की विश्वसनीय गवाही को नजरअंदाज कर दिया और केवल मेडिकल रिपोर्ट में छोटे-छोटे विरोधाभासों के आधार पर बरी कर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि विकास सिंह का लंबा आपराधिक इतिहास था, जिसे अदालत को ध्यान में रखना चाहिए था।
लेकिन हाईकोर्ट ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाया। न्यायमूर्ति राजीव सिंह ने अपने निर्णय में कहा कि जिला अस्पताल और लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) की रिपोर्टों के बीच इतने गंभीर विरोधाभास हैं कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
“मेडिकल साक्ष्य खुद संदेह पैदा करता है,” पीठ ने कहा। “एक रिपोर्ट में गोली का प्रवेश घाव बाईं ओर बताया गया है, जबकि दूसरी में दाईं ओर। और सबसे अहम बात-गले के आर-पार गोली जाने के बावजूद अंदरूनी ऊतकों को कोई नुकसान नहीं पाया गया।”
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि घायल गवाह ने स्वयं स्वीकार किया कि वह हमलावरों को नहीं देख सका क्योंकि गोली पीछे से लगी थी। “जब गवाह हमलावरों की पहचान नहीं कर पाता और भौतिक साक्ष्य अभियोजन की कहानी से मेल नहीं खाते, तो आरोपी को लाभ देना न्यायसंगत होता है,” न्यायाधीशों ने कहा।
सुप्रीम कोर्ट के मशहूर फैसले स्टेट (एनसीटी ऑफ दिल्ली) बनाम नवजोत संधू (2005) का हवाला देते हुए पीठ ने टिप्पणी की-“संदेह, चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो, कानूनी सबूत का विकल्प नहीं हो सकता।”
निर्णय
गवाहों के बयान, मेडिकल रिपोर्ट और घटनास्थल के नक्शे का अध्ययन करने के बाद हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों का सही मूल्यांकन किया था। अदालत ने कहा कि “केवल इसलिए कि आरोपी का आपराधिक रिकॉर्ड है, उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक विश्वसनीय सबूत मौजूद न हों।”
गवाहियों और चिकित्सीय रिपोर्टों में “बड़े विरोधाभास” पाते हुए अदालत ने शिकायतकर्ता रविकांत यादव की धारा 372 दंप्रसं के तहत दायर अपील और राज्य सरकार की धारा 378 दंप्रसं के तहत दायर अपील-दोनों को खारिज कर दिया।
इसके साथ ही, अयोध्या फायरिंग मामले से जुड़ा यह 13 साल पुराना कानूनी विवाद समाप्त हो गया, और दोनों आरोपियों की बरी को अंतिम रूप से बरकरार रखा गया।
Case: Ravi Kant Yadav vs State of Uttar Pradesh through Principal Secretary, Home, Lucknow & Others
Date of Judgment: October 17, 2025