दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि केवल "फाइल की आवाजाही" या "वकील में बदलाव" जैसे प्रशासनिक कारण, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के अंतर्गत अपील दायर करने में अत्यधिक देरी को न्यायोचित ठहराने के लिए "पर्याप्त कारण" नहीं माने जा सकते।
न्यायमूर्ति प्रभा एम. सिंह और न्यायमूर्ति रजनीश कुमार गुप्ता की खंडपीठ ने यह फैसला भारत संघ बनाम मेसर्स राजीव अग्रवाल (इंजीनियर और ठेकेदार) [एफएओ (कॉम) 142/2025 और सीएम एप्पल 32316-18/2025] में सुनाया। इसमें भारत सरकार ने 2023 में वाणिज्यिक न्यायालय द्वारा पारित उस निर्णय को चुनौती दी थी, जिसमें 15 जून 2018 के मध्यस्थता पुरस्कार को सही ठहराया गया था। हालाँकि, यह अपील 613 दिनों की देरी के साथ दायर की गई थी।
“एक्ट के तहत त्वरित निपटान का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब ऐसी अपीलें भी वही समय-सीमा मानें जो सेक्शन 34 के तहत याचिकाओं के लिए निर्धारित है,”
– दिल्ली हाईकोर्ट
मामले की पृष्ठभूमि
16 दिसंबर 2015 को उत्तरी रेलवे ने ₹2.5 करोड़ के निर्माण कार्यों के लिए M/s राजीव अग्रवाल को ठेका दिया था। हालाँकि, 13 जून 2016 को रेलवे ने अनुबंध को समाप्त कर दिया, जिसे ठेकेदार ने अनुचित बताया। विवाद उत्पन्न हुआ और मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा गया। 24 जुलाई 2018 को मध्यस्थ ने आंशिक रूप से ठेकेदार के दावे स्वीकार किए।
भारत सरकार ने इस पुरस्कार को सेक्शन 34 के तहत वाणिज्यिक न्यायालय में चुनौती दी, लेकिन 1 जुलाई 2023 को याचिका खारिज कर दी गई। इसके बाद, भारत सरकार ने सेक्शन 37 के तहत अपील दायर की और 613 दिन की देरी को माफ करने के लिए आवेदन भी दाखिल किया। देरी के कारणों में प्रशासनिक प्रक्रिया, फाइलों की आवाजाही और वकील के परिवर्तन को दर्शाया गया।
अदालत ने बताया कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम की धारा 13(1) के तहत ऐसी अपीलों के लिए 60 दिन की सीमा तय की गई है, जो केवल अपवाद स्वरूप ही बढ़ाई जा सकती है। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार बनाम बोरसे ब्रदर्स इंजीनियर्स एंड कॉन्ट्रैक्टर्स प्राइवेट लिमिटेड (2021) के सुप्रीम कोर्ट फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि देरी को “नियम के रूप में नहीं, अपवाद के रूप में” ही माफ किया जा सकता है।
“'पर्याप्त कारण' शब्दावली स्वयं ही किसी भी लापरवाही या पुराने दावों को स्वीकारने की छूट नहीं है,”
– सुप्रीम कोर्ट का बोरसे ब्रदर्स में कथन, जिसे दिल्ली हाईकोर्ट ने उद्धृत किया
दिल्ली हाईकोर्ट ने पाया कि आदेश प्राप्त होने के बाद भी विभागीय स्वीकृति और वकील नियुक्त करने की प्रक्रिया मार्च 2024 तक चली, जो कि अनुचित विलंब था। अदालत ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार की देरी को क्षमा करने के लिए कोई ठोस कारण प्रस्तुत नहीं किया गया।
कोर्ट ने डेल्को इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम इंटेक कैपिटल लिमिटेड में हाल ही में दिए अपने निर्णय का भी उल्लेख किया, जिसमें ऐसे ही आधारों को "पर्याप्त कारण" मानने से इंकार कर दिया गया था।
“वाणिज्यिक मामलों में समयसीमा का पालन आवश्यक है। जब तक न्यायालय यह न माने कि अपीलकर्ता वास्तव में अपील दायर करने से रोके गए थे, तब तक धारा 13(1A) के तहत की गई अपील में देरी को क्षमा नहीं किया जा सकता,”
– दिल्ली हाईकोर्ट
केस का शीर्षक: यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मेसर्स राजीव अग्रवाल (इंजीनियर और ठेकेदार)
केस नंबर: एफएओ (कॉम) 142/2025 और सीएम एपीपीएल. 32316-18/2025
अपीलकर्ता के वकील: श्री फरमान अली, श्री ताहा यासीन, सुश्री उषा जमनाल और श्री ध्रुव अरोड़ा, अधिवक्ता