जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में आपराधिक मामले की जांच के चरण में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है। अदालत ने स्पष्ट किया कि पुनः जांच या आरोपों में बदलाव की मांग पहले ट्रायल कोर्ट में की जानी चाहिए, न कि रिट याचिका के जरिए।
न्यायमूर्ति संजय परिहार की एकल पीठ ने यह आदेश परवीन बेगम द्वारा दायर याचिका पर सुनाया, जिसमें उन्होंने एफआईआर संख्या 47/2024, थाना डोडा में आरोपियों के विरुद्ध धारा 354 आईपीसी (महिला की मर्यादा भंग करने के इरादे से हमला) जोड़ने या पुनः जांच की मांग की थी।
"इस पृष्ठभूमि में, इस न्यायालय द्वारा रिट क्षेत्राधिकार के तहत हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि चार्जशीट उस जांच प्रक्रिया के आधार पर बनाई गई है जिसे पक्षपाती नहीं कहा गया है। याचिकाकर्ता ने बिना ट्रायल कोर्ट में इस विषय को उठाए सीधे हाईकोर्ट से हस्तक्षेप मांगा है, जिससे आरोपी को पूर्वाग्रह पहुंच सकता है," अदालत ने कहा।
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि संपत्ति विवाद को लेकर पेड़ काटने की घटना के बाद उन्हें वस्त्र उतारकर अपमानित और पीटा गया। लेकिन पुलिस जांच में यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह सिर्फ तकरार और हाथापाई का मामला था और वस्त्र उतारने की कोई पुष्टि नहीं हुई।
“पुरानी दुश्मनी के चलते शिकायतकर्ता ने आरोपों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया,” अदालत ने उल्लेख किया।
याचिकाकर्ता के वकील रोहित कुमार परिहार ने दलील दी कि पुलिस ने आरोपियों से मिलीभगत कर धारा 164 सीआरपीसी के तहत दिये गये बयान को नजरअंदाज किया, जिसमें वस्त्र उतारने का उल्लेख था। उन्होंने पुनः जांच और धारा 354 जोड़ने की मांग की।
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हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे तथ्यात्मक विवाद और जांच में त्रुटियां ट्रायल कोर्ट में उठाई जा सकती हैं, न कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका के माध्यम से।
“याचिकाकर्ता के वकील द्वारा उठाए गए सभी बिंदु ट्रायल कोर्ट के समक्ष उपयुक्त रूप से उठाए जा सकते हैं... इस न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है,” पीठ ने कहा।
साथ ही, अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले - सूर्य देव राय बनाम राम चंदर राय का हवाला देते हुए कहा कि पर्यवेक्षी अधिकार क्षेत्र का उपयोग केवल स्पष्ट त्रुटियों या गंभीर न्यायिक विफलता की स्थिति में ही किया जा सकता है।
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चूंकि मामले की सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई है, हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता के पास सभी वैधानिक विकल्प खुले हैं – चाहे वह आरोप तय होने के समय हो या ट्रायल की प्रक्रिया के दौरान।
“जब चार्जशीट दाखिल हो चुकी है और ट्रायल शुरू नहीं हुआ है, तो याचिकाकर्ता को जांच एजेंसी द्वारा छोड़ी गई कमियों को ट्रायल कोर्ट के समक्ष उठाने के पूरे अवसर प्राप्त हैं।”
अंततः, अदालत ने कहा कि इस स्तर पर रिट राहत नहीं दी जा सकती और याचिकाकर्ता को अपनी शिकायतों के निवारण के लिए ट्रायल कोर्ट का रुख करना चाहिए।
याचिका को अंतत खारिज कर दिया गया।
मामले का शीर्षक: परवीन बेगम बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश व अन्य, डब्ल्यूपी (क्रिमिनल) संख्या 35/2025
याचिकाकर्ता के वकील: रोहित कुमार परिहार