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सुप्रीम कोर्ट ने पाम ग्रोव्स केस में कंज़्यूमर फोरम आदेशों के पालन पर दी अहम स्पष्टीकरण

Vivek G.

सुप्रीम कोर्ट ने Palm Groves Cooperative Housing Society Ltd. बनाम Magar Girme and Gaikwad Associates मामले में कहा कि उपभोक्ता फोरम के आदेश, चाहे अंतरिम हों या अंतिम, लागू करने योग्य हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने पाम ग्रोव्स केस में कंज़्यूमर फोरम आदेशों के पालन पर दी अहम स्पष्टीकरण

सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया ने Palm Groves Cooperative Housing Society Ltd. बनाम M/s Magar Girme and Gaikwad Associates (सिविल अपील संख्या 5536–5538/2025) में एक अहम फैसला सुनाया, जिसमें कंज़्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट, 1986 और उसके संशोधनों के तहत कंज़्यूमर फोरम के आदेशों के पालन (execution) पर स्पष्टता दी गई।

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मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद तब शुरू हुआ जब पाम ग्रोव्स कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी, जो “Palm Groves” प्रोजेक्ट (पुणे) के फ्लैट खरीदारों का प्रतिनिधित्व कर रही थी, ने बिल्डर (Magar Girme and Gaikwad Associates) और ज़मीन मालिकों के खिलाफ उपभोक्ता शिकायत दर्ज की। सोसाइटी ने निर्माण में खराबी, वादा किए गए सुविधाओं की कमी और कन्वेयंस डीड (Conveyance Deed) को निष्पादित न करने का आरोप लगाया।

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2007 में जिला उपभोक्ता फोरम ने आंशिक रूप से शिकायत को स्वीकार किया। फोरम ने बिल्डर को निर्देश दिया कि वह सोसाइटी के पक्ष में कन्वेयंस डीड निष्पादित करे, सभी जरूरी दस्तावेज सौंपे और ₹5,00,000 का मुआवज़ा दे। साथ ही बंगला मालिकों को भी ₹2,00,000 मुआवज़े का भुगतान करने का आदेश दिया गया।

बाद में राज्य आयोग ने इस आदेश में संशोधन करते हुए बिल्डर पर लगाए गए मुआवज़े को हटा दिया लेकिन बाकी निर्देश बरकरार रखे। मामला अंततः राष्ट्रीय आयोग (NCDRC) पहुँचा, जिसने सोसाइटी की निष्पादन संबंधी पुनरीक्षण याचिकाओं (Execution Revision Petitions) को “ग़ैर-प्रवर्तनीय” बताते हुए ख़ारिज कर दिया। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा।

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  1. क्या निष्पादन कार्यवाही (execution proceedings) में पारित आदेशों के खिलाफ पुनरीक्षण याचिकाएँ सुनवाई योग्य थीं?
  2. क्या 1986 अधिनियम (2002 संशोधन के बाद) के तहत अंतिम आदेशों का पालन कराने की शक्ति उपभोक्ता फोरम के पास थी?
  • अपीलकर्ता (सोसाइटी): उनका कहना था कि राष्ट्रीय आयोग ने उनकी याचिकाएँ ग़लत तरीके से खारिज कर दीं। 2002 संशोधन ने केवल “अंतरिम आदेश” (interim orders) के पालन की बात कही, जिससे अंतिम आदेशों के पालन में कानूनी कमी रह गई। यह उपभोक्ता अधिकारों को कमजोर करता है। सोसाइटी ने ज़ोर दिया कि यह कानून उपभोक्ताओं के हित में है और इसका उदारतापूर्वक व्याख्या होना चाहिए।
  • प्रतिवादी (बिल्डर और बंगला मालिक): उनका कहना था कि ये याचिकाएँ सुनवाई योग्य नहीं हैं और 2006 में बंगला सोसाइटी के पक्ष में कन्वेयंस डीड पहले ही निष्पादित हो चुकी है। उन्होंने यह भी कहा कि उचित उपाय अनुच्छेद 227 के तहत उच्च न्यायालय में जाना था।
  • अटॉर्नी जनरल और अमिकस (न्यायालय सहायक): उन्होंने उपभोक्ता हित में “उद्देश्यपरक व्याख्या” (purposive interpretation) का समर्थन किया। उन्होंने बताया कि 2002 संशोधन से पहले और 2019 अधिनियम के बाद दोनों ही स्थितियों में “हर आदेश” लागू (enforceable) था। 2003 से 2020 तक का अंतराल केवल तकनीकी कमी थी, और उपभोक्ताओं को बिना उपाय छोड़ा नहीं जा सकता।

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न्यायमूर्ति राजेश बिंदल ने निर्णय सुनाते हुए कहा:

“उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक कल्याणकारी कानून है। यदि 2002 संशोधन से कोई तकनीकी कमी रह गई है, तो अदालत को उद्देश्यपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए ताकि उपभोक्ता बिना उपाय के न रह जाएं।”

अदालत ने स्पष्ट किया कि 1986 अधिनियम एक पूर्ण संहिता (self-contained code) है और उपभोक्ता फोरम के पास अंतिम आदेशों को लागू कराने की शक्ति है। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि देशभर में अब भी हज़ारों निष्पादन याचिकाएँ लंबित हैं, और यदि इन्हें अमल योग्य न माना जाए तो यह अन्याय होगा।

मामले का शीर्षक: पाम ग्रोव्स कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम मेसर्स मगर गिरमे और गायकवाड़ एसोसिएट्स एवं अन्य

मामले का प्रकार: सिविल अपीलें (विशेष अनुमति याचिकाओं से उत्पन्न)

अपील संख्याएँ: सिविल अपील संख्या 5536-5538, वर्ष 2025

स्रोत: विशेष अनुमति याचिका (सी) संख्या 30579-30581, वर्ष 2019

निर्णय की तिथि: वर्ष 2025 (उद्धरण: वर्ष 2025 आईएनएससी 1023)

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