12 नवम्बर 2025 को सुनाए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड उच्च न्यायालय और निचली अदालत के उन आदेशों को निरस्त कर दिया, जिनमें एक भूमि बिक्री विवाद से जुड़ी दीवानी वाद में प्रत्यावेदन (काउंटर क्लेम) की अनुमति दी गई थी। न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन. वी. अंजारिया की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि “प्रत्यावेदन सह-प्रतिवादी के विरुद्ध प्रस्तुत नहीं किया जा सकता” और अपीलकर्ता संजय तिवारी की याचिका स्वीकार कर ली।
यह मामला एक ही भूखंड पर कई मौखिक समझौतों के दावों से जुड़ा था, जहाँ विभिन्न पक्षों ने स्वामित्व का अधिकार जताया था।
पृष्ठभूमि
विवाद की शुरुआत वर्ष 2002 में हुई जब संजय तिवारी ने युगल किशोर प्रसाद साव के खिलाफ विशिष्ट निष्पादन (specific performance) की मांग करते हुए दीवानी वाद दायर किया यानी विक्रय अनुबंध को लागू करने की मांग। तिवारी का कहना था कि उन्होंने सम्पूर्ण मूल्य डिमांड ड्राफ्ट्स के माध्यम से चुका दिया था और भूमि पर बाउंड्री वॉल तक बना ली थी।
किन्तु प्रतिवादी ने तर्क दिया कि दो अन्य व्यक्ति (जो बाद में प्रतिवादी संख्या 2 और 3 बने) ने भी उसी भूमि के हिस्से को खरीदने का अनुबंध किया था। इन नए प्रतिवादियों ने तब मामले में शामिल होने की मांग की और एक प्रत्यावेदन (काउंटर क्लेम) दायर किया, जिसमें कहा गया कि सम्पूर्ण भूमि उन्हीं के नाम स्थानांतरित की जाए।
निचली अदालत ने इस प्रत्यावेदन को स्वीकार कर लिया और उच्च न्यायालय ने भी यह कहते हुए इस आदेश को बरकरार रखा कि “मुकदमों की बहुलता से बचा जा सके।”
न्यायालय की टिप्पणियाँ
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के तर्क को अस्वीकार किया। न्यायालय ने यह दोहराया कि सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार एक प्रतिवादी दूसरे प्रतिवादी के विरुद्ध प्रत्यावेदन प्रस्तुत नहीं कर सकता।
पीठ ने टिप्पणी की,
“प्रत्यावेदन वादी के विरुद्ध होना चाहिए, न कि सह-प्रतिवादी के,” और इसके समर्थन में रोहित सिंह बनाम बिहार राज्य (2006) तथा राजुल मनो शाह बनाम किरणभाई पटेल (2025) के फैसलों का हवाला दिया।
न्यायमूर्ति चंद्रन ने कहा कि भले ही प्रतिवादी संख्या 2 और 3 के पास भूमि के कुछ हिस्से पर कब्जा या भुगतान का दावा हो, परंतु उनका दावा वादी की विशिष्ट निष्पादन याचिका को निष्प्रभावी नहीं कर सकता। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि कथित अनुबंध वर्ष 2002 का था जबकि प्रतिवादियों ने 2006 में जाकर याचिका दायर की जो सीमा अवधि (limitation period) से बहुत आगे थी।
न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादियों के कथन विरोधाभासी थे उन्होंने स्वीकार किया कि भूमि का 43 डेसिमल हिस्सा पहले ही वादी के पिता को बेचा जा चुका था, जबकि उनका दावा 50 डेसिमल के लिए था। साथ ही यह भी कोई प्रमाण नहीं था कि वे शेष भुगतान करने को तत्पर थे।
पीठ ने कहा,
“प्रत्यावेदन का कोई ठोस आधार नहीं है, और भूमि क्षेत्र में हेरफेर के आरोप मुकदमे के दौरान परीक्षण का विषय होंगे।”
निर्णय
अपील स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों द्वारा अनुमति दिए गए प्रत्यावेदन को निरस्त कर दिया। न्यायालय ने वादी की मूल याचिका पर सुनवाई बहाल की, परंतु यह स्पष्ट कर दिया कि प्रतिवादी संख्या 2 और 3 अब इस विषय पर अलग से कोई वाद दायर नहीं कर सकते, क्योंकि उनकी मांग पहले से ही सीमा अवधि से बाहर है।
न्यायालय ने सख्त शब्दों में कहा,
“जब दावा पहले ही विलंबित है, तो प्रतिवादियों को अलग वाद दायर करने की अनुमति देने का कोई औचित्य नहीं है।”
इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से यह सुनिश्चित हुआ कि वादी की विशिष्ट निष्पादन याचिका अब बिना किसी अवैध प्रत्यावेदन के हस्तक्षेप के आगे बढ़ेगी।
अब यह मामला पुनः निचली अदालत में सुना जाएगा, जहाँ कब्जे और संपत्ति हस्तांतरण से संबंधित तथ्य वादी की याचिका के आधार पर तय किए जाएंगे।
Case Title: Sanjay Tiwari v. Yugal Kishore Prasad Sao & Ors.










