केरल हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि वह पत्नी, जिसने आपसी सहमति से तलाक लेते समय भत्ते (मेंटेनेंस) का अधिकार छोड़ दिया था, वह भविष्य में परिस्थितियों में बदलाव आने पर फिर से रख-रखाव की मांग कर सकती है। यह निर्णय जस्टिस सतीश निनन और जस्टिस पी. कृष्ण कुमार की खंडपीठ ने शीला जॉर्ज एवं अन्य बनाम वी.एम. अलेक्जेंडर मामले में दिया।
कोर्ट एक तलाकशुदा महिला और उसके बेटे द्वारा दायर पारिवारिक अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उनके भत्ते की मांग को खारिज कर दिया गया था। फैमिली कोर्ट ने यह मानते हुए याचिका खारिज कर दी थी कि पत्नी ने तलाक के समय ₹30,000 लेकर भविष्य में भत्ते के अधिकार को त्याग दिया था।
हालांकि हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि डिवोर्स एक्ट की धारा 37 के तहत, तलाकशुदा पत्नी विवाह विच्छेद के बाद भी भत्ते की मांग कर सकती है, विशेषकर जब वह अपनी आर्थिक स्थिति में बदलाव सिद्ध कर सके।
“जब पत्नी ने धारा 10A के अंतर्गत एक संयुक्त याचिका के माध्यम से तलाक प्राप्त किया हो, तो हमें यह मानने का कोई कारण नहीं दिखता कि धारा 37 लागू नहीं होगी… ऐसा डिक्री ‘पत्नी द्वारा प्राप्त’ मानी जा सकती है,” कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर याचिका गलत प्रावधान के अंतर्गत भी दाखिल की गई हो या धारा का उल्लेख गलत हो, तो भी यदि पत्नी कानूनन उस अधिकार की पात्र है तो वह दावा कर सकती है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 127(3)(c) भले ही पति को तलाक के बाद पत्नी द्वारा भत्ता त्यागने की स्थिति में उसे समाप्त करने की अनुमति देती है, लेकिन यदि पत्नी की परिस्थितियां बदलती हैं तो वह पुनः भत्ते की मांग कर सकती है।
“धारा 127(3)(c)… पत्नी को बदली हुई परिस्थितियों में दोबारा मेंटेनेंस मांगने से नहीं रोकती, यदि वह स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हो जाए,” खंडपीठ ने कहा।
पहले हुए उस समझौते की वैधता पर, जिसमें पत्नी ने भविष्य का भत्ता लेने से इनकार किया था, कोर्ट ने नागेन्द्रप्पा नटिकर बनाम नीलम्मा और राजेश आर. नायर बनाम मीरा बाबू जैसे मामलों का हवाला देते हुए कहा कि मेंटेनेंस एक वैधानिक अधिकार है जिसे निजी समझौते से नहीं छीना जा सकता, खासकर जब वह पत्नी को विपन्नता की स्थिति में छोड़ दे।
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“मेंटेनेंस से संबंधित वैधानिक प्रावधान राष्ट्र की सार्वजनिक नीति को दर्शाते हैं… ऐसे समझौते जो इन अधिकारों को नकारते हैं, वे लागू नहीं होते,” कोर्ट ने कहा।
नाबालिग पुत्र के अधिकार के बारे में हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही डिवोर्स एक्ट की धारा 37 बच्चों को कवर न करती हो, धारा 43 और 44 फैमिली कोर्ट को यह शक्ति देती हैं कि वह बच्चों के लिए भी भत्ते का आदेश दे सके। अतः बच्चे को मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए आदेश के बावजूद फैमिली कोर्ट से अधिक भत्ते की मांग का अधिकार है।
अंततः, हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए मामले को दोबारा सुनवाई के लिए निचली अदालत को सौंपा और वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर नया फैसला लेने का निर्देश दिया।
केस का शीर्षक: शीला जॉर्ज और अन्य बनाम वी.एम. एलेक्जेंडर
केस नंबर: मैट. अपील संख्या 586/2017
अपीलकर्ताओं के वकील: निर्मल वी. नायर
प्रतिवादी के वकील: वी.एन. मधुसूदनन, डॉ. वी.एन. शंकरजी, एस. सिद्धार्धन, एम. सुशीला, आर. उदय ज्योति, एम.एम. विनोद