अदालत कक्ष में लंबी और विस्तार से चली बहस के दौरान माहौल शांत लेकिन गंभीर रहा। सोमवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उस महिला को भरण-पोषण देने से इनकार कर दिया, जिसने करीब दस वर्षों तक खुद को पत्नी के रूप में साथ रहने का दावा किया था। अदालत ने साफ कहा कि भावनात्मक संबंध और लंबे समय तक साथ रहना कानून से ऊपर नहीं हो सकता, खासकर तब जब पहली शादी अब भी कानूनी रूप से कायम हो। यह आपराधिक पुनरीक्षण याचिका न्यायमूर्ति मदन पाल सिंह की पीठ के समक्ष सुनी गई, जिन्होंने फैमिली कोर्ट द्वारा पहले से खारिज किए गए भरण-पोषण के आदेश को बरकरार रखा।
पृष्ठभूमि
यह मामला श्रीमती मधु उर्फ अरुणा बाजपेयी द्वारा दायर किया गया था, जिसमें उन्होंने कानपुर नगर की फैमिली कोर्ट के वर्ष 2024 के आदेश को चुनौती दी थी। उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग की थी, जो पत्नियों को आर्थिक संकट से बचाने के लिए बनाई गई है।
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अदालत के सामने रखी गई उनकी कहानी कई परतों वाली थी। मधु की शादी वर्ष 1992 में रामचंद्र तिवारी से हुई थी और इस विवाह से उनके दो बच्चे भी हैं। बाद में दोनों अलग रहने लगे और मुकदमेबाजी भी चली, लेकिन कानूनी रूप से कभी तलाक नहीं हुआ। इसी दौरान उनकी मुलाकात शिव प्रकाश बाजपेयी से हुई, जो पेशे से वकील हैं। महिला का कहना था कि उन्होंने उसे समझाया कि पारिवारिक समझौते और नोटरी दस्तावेज के जरिए शादी खत्म की जा सकती है। इसी भरोसे पर, उसके अनुसार, दोनों ने वर्ष 2009 में शादी की और लगभग दस साल तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे।
जब रिश्ते में दरार आई और वर्ष 2018 में कथित तौर पर उसे घर से निकाल दिया गया, तब उसने भरण-पोषण के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया। उसका कहना था कि समाज और सरकारी दस्तावेजों में भी उसे बाजपेयी की पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया।
अदालत की टिप्पणियाँ
हाईकोर्ट ने तथ्यों को कानूनी नजरिए से परखा। पीठ ने कहा, “रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से स्पष्ट है कि पुनरीक्षणकर्ता की पहली शादी कानूनन अब भी कायम है।” अदालत ने यह भी नोट किया कि उसके पहले पति के खिलाफ दायर तलाक की अर्जी खारिज हो चुकी थी, जिससे विवाह कानूनी रूप से समाप्त नहीं हुआ।
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि जिस व्यक्ति से भरण-पोषण मांगा गया, वह स्वयं पहले से शादीशुदा है और अपनी विधिवत पत्नी व बच्चों के साथ रह रहा है। ऐसी स्थिति में, अदालत ने कहा, जीवनसाथी के जीवित रहते दूसरा विवाह कानून की नजर में शुरू से ही शून्य होता है।
महिला द्वारा सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों पर भरोसा जताना, जिनमें “विवाह जैसे संबंधों” को संरक्षण दिया गया है, इस मामले में अदालत को स्वीकार्य नहीं लगा। न्यायमूर्ति सिंह ने कहा कि ऐसे संरक्षण सीमित परिस्थितियों में ही लागू होते हैं। पीठ ने टिप्पणी की, “धारा 125 सीआरपीसी को इस हद तक नहीं बढ़ाया जा सकता कि उसमें वह महिला भी आ जाए जो कानूनी रूप से विवाहित ही नहीं है।”
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अदालत ने खास तौर पर यह भी स्पष्ट किया कि नोटरी समझौते या निजी सेटलमेंट से हिंदू विवाह समाप्त नहीं हो सकता। “इस तरह के दस्तावेज पत्नी का कानूनी दर्जा नहीं दे सकते,” न्यायाधीश ने कहा, साथ ही यह भी जोड़ा कि ऐसे दावों को मान लेने से विवाह कानूनों का उद्देश्य ही कमजोर पड़ जाएगा।
निर्णय
अंत में अदालत ने कहा कि चाहे साथ रहना कितना ही लंबा क्यों न रहा हो, वह वैध विवाह का स्थान नहीं ले सकता। हाईकोर्ट ने माना कि श्रीमती मधु धारा 125 सीआरपीसी के तहत “कानूनी रूप से विवाहित पत्नी” की श्रेणी में नहीं आतीं।
पीठ ने कहा, “चुनौती दिए गए आदेश में हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं है,” और आपराधिक पुनरीक्षण याचिका खारिज करते हुए फैमिली कोर्ट के भरण-पोषण से इनकार वाले आदेश को बरकरार रखा।
Case Title: Smt. Madhu @ Aruna Bhajpai vs. State of Uttar Pradesh & Another
Case No.: Criminal Revision No. 2099 of 2024
Case Type: Criminal Revision (Maintenance under Section 125 Cr.P.C.)
Decision Date: December 8, 2025








