मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय, जबलपुर ने मनोज कुमार को तलाक की अनुमति देते हुए निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया, जिसने पहले उनकी याचिका खारिज कर दी थी। न्यायमूर्ति विशाल धागत और न्यायमूर्ति अनुराधा शुक्ला की खंडपीठ ने कहा कि पत्नी द्वारा लगाए गए झूठे आरोप-खासकर शराबखोरी जैसे-मानसिक क्रूरता के दायरे में आते हैं। अदालत ने टिप्पणी की कि ऐसे निराधार आरोप “किसी व्यक्ति की सामाजिक गरिमा को ठेस पहुँचा सकते हैं,” खासकर जब दोनों पति-पत्नी सरकारी कर्मचारी हों।
पृष्ठभूमि
मनोज कुमार और ममता अर्सिया का विवाह जून 2004 में हुआ था और उनके दो बच्चे हैं। दोनों ही सार्वजनिक सेवा में कार्यरत हैं। वर्ष 2017 में लंबे वैवाहिक तनाव के बाद वे अलग रहने लगे। मनोज कुमार ने तलाक की याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने ‘त्याग’ (desertion) और ‘क्रूरता’ के आधार पर वैवाहिक संबंध समाप्त करने की मांग की, यह कहते हुए कि उनकी पत्नी झूठे आरोप लगाती हैं और वैवाहिक संबंध निभाने से इनकार करती हैं।
दूसरी ओर, ममता ने पति पर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के आरोप लगाए और कहा कि उन्होंने 2005 में ‘घरेलू हिंसा अधिनियम’ के तहत मामला दर्ज कराया था, जो बाद में समझौते से निपट गया। उनका कहना था कि वह तलाक नहीं चाहतीं और यदि पति “अपने व्यवहार में सुधार करें” तो वह उनके साथ रह सकती हैं।
मंडला पारिवारिक न्यायालय ने मनोज की याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद उन्होंने उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया।
अदालत के अवलोकन
खंडपीठ ने पूरे घटनाक्रम की समय-रेखा का विश्लेषण किया और पाया कि पति-पत्नी के बीच 2017 में अलगाव हुआ था, जबकि तलाक की याचिका जुलाई 2018 में दायर की गई थी। इस प्रकार, ‘त्याग’ के लिए आवश्यक दो वर्ष की अवधि पूरी नहीं हुई थी, इसलिए यह आधार अपने आप समाप्त हो गया।
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अब सवाल था ‘क्रूरता’ का। न्यायमूर्ति अनुराधा शुक्ला ने दोनों पक्षों के साक्ष्य की बारीकी से समीक्षा की। अदालत ने पाया कि पूर्व में हुए समझौते से यह साबित नहीं होता कि पति शराबी थे। वास्तव में, अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने “प्लीडिंग्स (दलीलों) के दायरे से बाहर जाकर साक्ष्य पर भरोसा किया,” जो सिविल कानून में स्वीकार्य नहीं है।
अदालत ने टिप्पणी की-“पत्नी द्वारा पति पर शराबखोरी और हिंसा के झूठे आरोप लगाना, बिना किसी ठोस साक्ष्य के, सामाजिक अपमान का कारण बना।” खंडपीठ ने आगे कहा, “पति-पत्नी के बीच रोज़मर्रा की कहासुनी अलग बात है, लेकिन यदि एक पक्ष लगातार दूसरे को सामाजिक रूप से नीचा दिखाने की कोशिश करे, तो यह विवाह की नींव हिला देता है।”
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों-सामर घोष बनाम जया घोष और वी. भगत बनाम डी. भगत-का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि निराधार आरोप, जो किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य और प्रतिष्ठा पर असर डालें, उन्हें मानसिक क्रूरता माना जा सकता है।
निर्णय
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि पत्नी का व्यवहार मानसिक क्रूरता के अंतर्गत आता है और पारिवारिक अदालत ने पति की याचिका खारिज करके गलती की थी। अदालत ने कहा कि “झूठे आरोप लगाकर और फिर भी वैवाहिक जीवन पुनः शुरू करने से इनकार कर,” पत्नी ने विवाह संबंध को स्वयं ही समाप्त कर दिया।
अपील स्वीकार करते हुए न्यायालय ने मंडला फैमिली कोर्ट का निर्णय रद्द कर दिया और विवाह को भंग घोषित किया। खंडपीठ ने आदेश दिया-“23 जून 2004 को संपन्न विवाह इस निर्णय की तारीख से भंग माना जाएगा,” और रजिस्ट्री को डिक्री तैयार करने के निर्देश दिए।
इस निर्णय के साथ, उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि निराधार आरोप, जो किसी जीवनसाथी की प्रतिष्ठा को धूमिल करें, वे शारीरिक हिंसा जितने ही गंभीर हो सकते हैं-यह याद दिलाने वाला फैसला कि विवाह का आधार सम्मान और सच्चाई ही है।










