दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि एक कमाने वाले जीवनसाथी द्वारा स्वेच्छा से लिए गए पर्सनल लोन या ईएमआई को पत्नी या बच्चे के भरण-पोषण से बचने के बहाने के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति रेनू भटनागर की पीठ ने ज़ोर दिया कि हाउस रेंट, बिजली बिल, जीवन बीमा प्रीमियम या पर्सनल लोन जैसी कटौतियां स्वैच्छिक वित्तीय दायित्व हैं। इन्हें भरण-पोषण की राशि तय करते समय वैध कटौतियों के रूप में नहीं माना जा सकता।
"ये कमाने वाले जीवनसाथी द्वारा उठाए गए स्वैच्छिक वित्तीय दायित्व माने जाते हैं, जो आश्रित जीवनसाथी या बच्चे के भरण-पोषण की प्राथमिक जिम्मेदारी से ऊपर नहीं हो सकते," कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि कोई भी व्यक्ति जानबूझकर अपनी आय को कम दिखाकर या स्वयं द्वारा उठाए गए आर्थिक दायित्वों के आधार पर अपनी वैधानिक जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता।
"कोई व्यक्ति अपनी पत्नी और आश्रितों के भरण-पोषण की वैधानिक जिम्मेदारी से केवल पर्सनल लोन या दीर्घकालिक वित्तीय दायित्व उठाकर नहीं बच सकता," कोर्ट ने जोड़ा।
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि भरण-पोषण की राशि का निर्धारण ईएमआई या अन्य स्वैच्छिक खर्चों को घटाने के बाद की शुद्ध आय के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि उस मुक्त आय के आधार पर होना चाहिए जो संबंधित व्यक्ति की वास्तविक आय क्षमता और जीवन स्तर को दर्शाए।
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यह टिप्पणी उस समय दी गई जब कोर्ट ने एक पति की अपील खारिज की, जिसमें उसने पारिवारिक न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें उसे हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत पत्नी और बच्चे के लिए ₹15,000 मासिक भरण-पोषण देने का निर्देश दिया गया था।
पति ने दलील दी कि पारिवारिक न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि वह एक संपत्ति लोन की ईएमआई नियमित रूप से चुका रहा है और उसने एक मेडिक्लेम पॉलिसी भी ले रखी है जिसमें पत्नी और बच्चा शामिल हैं। लेकिन हाईकोर्ट इस दलील से सहमत नहीं हुआ।
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कोर्ट ने बताया कि पत्नी एक चिकित्सकीय स्थिति से पीड़ित है और साथ ही साथ वह अपने नाबालिग बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी निभा रही है, ऐसे में उसके लिए पूर्णकालिक नौकरी करना संभव नहीं है।
"ऐसी परिस्थितियों में पूर्णकालिक या लाभकारी रोजगार न कर पाने को स्वैच्छिक विकल्प के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसे उसकी दोहरी जिम्मेदारियों द्वारा लगाए गए व्यावहारिक प्रतिबंधों के रूप में देखा जाना चाहिए," कोर्ट ने कहा।
"भरण-पोषण की आवश्यकता केवल आय की अनुपस्थिति में ही नहीं, बल्कि वास्तविक और विवश करने वाली परिस्थितियों के कारण कमाने में असमर्थता के आधार पर भी खड़ी होती है।"
कोर्ट ने यह भी खारिज कर दिया कि पति का कॉन्ट्रैक्चुअल कर्मचारी होना उसे कानूनी जिम्मेदारी से मुक्त करता है। उसने माना कि यह जिम्मेदारी कानून से उत्पन्न होती है और इसे स्वैच्छिक वित्तीय बोझ का हवाला देकर नहीं टाला जा सकता।
"पारिवारिक न्यायालय के निष्कर्ष रिकॉर्ड पर उपलब्ध ठोस सामग्री जैसे बैंक स्टेटमेंट्स, टैक्स रिटर्न और दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत आय शपथपत्रों पर आधारित हैं…", कोर्ट ने अंत में कहा।
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