Logo
Court Book - India Code App - Play Store

Loading Ad...

राज्यपाल और राष्ट्रपति की स्वीकृति की समय-सीमा पर राष्ट्रपति के संदर्भ में SC 22 जुलाई को सुनवाई करेगी

Vivek G.

सर्वोच्च न्यायालय 22 जुलाई को अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति के संदर्भ पर सुनवाई करेगा, जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर स्वीकृति के लिए संवैधानिक शक्तियों और समय-सीमाओं की जाँच की जाएगी।

राज्यपाल और राष्ट्रपति की स्वीकृति की समय-सीमा पर राष्ट्रपति के संदर्भ में SC 22 जुलाई को सुनवाई करेगी

भारत का सर्वोच्च न्यायालय 22 जुलाई, 2025 को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत एक महत्वपूर्ण राष्ट्रपति के संदर्भ पर सुनवाई करेगा। यह संदर्भ राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर स्वीकृति से संबंधित महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न उठाता है, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या न्यायालय ऐसे कार्यों पर समय-सीमाएँ निर्धारित कर सकते हैं।

Read in English

भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति एएस चंदुरकर की एक संविधान पीठ इस मामले की अध्यक्षता करेगी।

न्यायालय ने कहा, "ये प्रश्न गंभीर संवैधानिक महत्व के हैं और अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों की भूमिकाओं से सीधे संबंधित हैं।"

पृष्ठभूमि

यह संदर्भ तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले के बाद आया है, जिसमें न्यायालय ने विधेयकों को स्वीकृति देने में अनिश्चितकालीन विलंब पर रोक लगा दी थी। न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि:

“राज्यपाल 'पॉकेट वीटो' का प्रयोग नहीं कर सकते; उन्हें तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।”

Read also:- सुप्रीम कोर्ट: संयुक्त डिक्री में मृतक के कानूनी उत्तराधिकारियों को समय पर शामिल न करने पर पूरी अपील विफल हो जाती है

इसके अतिरिक्त, यदि राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को भी तीन महीने के भीतर कार्रवाई करनी होगी। न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यदि इन समय-सीमाओं का पालन नहीं किया जाता है, तो राज्य सरकार न्यायालय में परमादेश याचिका दायर कर सकती है।

इसी फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा एक वर्ष से अधिक समय से लंबित रखे गए दस विधेयकों को स्वीकृत मान लिया गया था।

हालाँकि, भारत के उपराष्ट्रपति ने इस फैसले की कड़ी आलोचना की। उन्होंने राष्ट्रपति को निर्देश जारी करने की न्यायपालिका की शक्ति पर सवाल उठाया और अनुच्छेद 142 के प्रयोग को न्यायपालिका द्वारा "परमाणु मिसाइल" बताया।

उठाए गए प्रमुख संवैधानिक प्रश्न

राष्ट्रपति संदर्भ में 14 प्रमुख कानूनी प्रश्न प्रस्तुत किए गए हैं, जिनमें शामिल हैं:

"क्या न्यायालय राष्ट्रपति और राज्यपालों के संवैधानिक कार्यों के लिए न्यायिक रूप से समय-सीमा निर्धारित कर सकते हैं?"

Read also:- जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने कहा, 'परिवहन वाहनों' के लिए लाइसेंस प्राप्त ड्राइवर यात्री बसें चला सकते हैं

उठाए गए कुछ मुख्य प्रश्न इस प्रकार हैं:

  1. राज्यपाल के विकल्प: अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास विधेयक प्रस्तुत होने पर क्या विकल्प होते हैं?
  2. सहायता और सलाह: क्या राज्यपाल सभी परिस्थितियों में मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य हैं?
  3. न्यायिक समीक्षा: क्या न्यायालय अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के विवेकाधिकार की समीक्षा कर सकते हैं?
  4. अनुच्छेद 361: क्या यह राज्यपाल के कार्यों की न्यायिक जाँच पर रोक लगाता है?
  5. न्यायपालिका द्वारा समय-सीमा: क्या न्यायालय ऐसी समय-सीमाएँ निर्धारित कर सकते हैं जहाँ संविधान में कोई समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं है?
  6. राष्ट्रपति की शक्तियाँ: क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के निर्णय भी न्यायालय की समीक्षा के अधीन हैं?
  7. अनुच्छेद 143: क्या राष्ट्रपति को किसी विधेयक के आरक्षित होने पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह लेनी चाहिए?
  8. अधिनियमन-पूर्व समीक्षा: क्या न्यायालय किसी विधेयक की कानून बनने से पहले समीक्षा कर सकते हैं?
  9. अनुच्छेद 142 की भूमिका: क्या इस अनुच्छेद का उपयोग अन्य संवैधानिक प्रावधानों को रद्द करने के लिए किया जा सकता है?
  10. राज्य के कानूनों की वैधता: क्या कोई कानून राज्यपाल की सहमति के बिना वैध है?
  11. अनुच्छेद 145(3) की व्याख्या: क्या पाँच न्यायाधीशों की पीठ को यह तय करना चाहिए कि क्या मामले में कोई महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न शामिल हैं?
  12. अनुच्छेद 142 का दायरा: क्या यह प्रक्रियात्मक उपायों से आगे तक विस्तृत है?
  13. विवाद समाधान: क्या अनुच्छेद 131 ही संघ-राज्य विवादों को सुलझाने का एकमात्र तरीका है?

Read also:- सुप्रीम कोर्ट ने बीसीआई से पूछा – क्या गरीब कानून स्नातकों के लिए AIBE शुल्क में छूट दी जा सकती है?

यह मामला कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच नाजुक संवैधानिक संतुलन को स्पष्ट करेगा और विधायी प्रक्रियाओं में न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे को परिभाषित करेगा।