भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए संज्ञान लिया है कि राज्य संचालित गृहों में रह रहे संज्ञानात्मक (कॉग्निटिव) विकलांगता वाले लोगों के अधिकार और गरिमा को अब और नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। यह मामला, जिसकी शुरुआत 1998 में हुई थी और बाद में अपीलों के जरिए व्यापक हुआ, अब एक व्यापक निर्देश में परिणत हुआ है—जिसका मकसद टुकड़ों-टुकड़ों में सुधार नहीं बल्कि अधिकार-आधारित निगरानी प्रणाली लागू करना है।
पृष्ठभूमि
इस मुकदमे की शुरुआत जस्टिस सुनंदा भंडारे फाउंडेशन ने की थी, जिसने विकलांग व्यक्तियों के लिए 1995 के कानून के सही क्रियान्वयन की मांग की थी। इसके बाद कार्यकर्ता रीना बनर्जी ने दिल्ली स्थित आशा किरण गृह की भयावह स्थितियों को कोर्ट के सामने रखा। भीड़भाड़, दुर्व्यवहार और हिरासत में मौतों की खबरों ने न्यायपालिका का ध्यान खींचा।
हालांकि 2014 और 2016 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश आए थे, फिर भी राज्यों में अनुपालन अधूरा रहा। बेंच ने साफ कहा, “हम संवैधानिक वादों को खोखला नहीं होने देंगे।” अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को दान या कृपा नहीं, बल्कि समानता का मूलभूत हिस्सा माना जाना चाहिए।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि यह समस्या केवल दिल्ली के आशा किरण तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश में प्रणालीगत विफलता को दर्शाती है। कोर्ट ने चिकित्सा देखभाल की कमी, खराब ढांचे और पुनर्वास की नाकामी जैसे मुद्दों पर चिंता जताई।
विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि ऐसे गृहों में रहने वालों से बुनियादी गरिमा भी छीन ली जाती है। “जब संस्थान सुलभ स्थान, सार्थक शिक्षा और उचित इलाज देने में नाकाम रहते हैं, तो वे अधिकारों को खोखले वादों में बदल देते हैं,” न्यायाधीशों ने टिप्पणी की।
अदालत ने आरक्षण नीति पर भी गंभीर सवाल उठाए। यह पाया गया कि विकलांग उम्मीदवार, जो सामान्य श्रेणी की कट-ऑफ से अधिक अंक लाते हैं, उन्हें फिर भी आरक्षित सीट पर बैठा दिया जाता है। इससे उसी श्रेणी के अन्य उम्मीदवार अवसर से वंचित हो जाते हैं। अदालत ने इसे “स्पष्ट शत्रुतापूर्ण भेदभाव” कहा और केंद्र सरकार से पूछा कि विकलांग उम्मीदवारों के लिए सामान्य “अपवर्ड मूवमेंट” का सिद्धांत क्यों लागू नहीं है।
फैसला
अदालत ने प्रोजेक्ट एबिलिटी एम्पावरमेंट शुरू करने की घोषणा की। इसके तहत आठ राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय (NLUs) विशेषज्ञ पैनल के साथ मिलकर देशभर में विकलांगता गृहों की निगरानी करेंगे। हर NLU को कुछ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी और वे जमीनी स्तर पर आकलन करेंगे।
निगरानी केवल इमारतों और सुविधाओं तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि इसमें स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण, शिकायत निवारण और निवासियों की गरिमा भी शामिल होगी। केंद्र सरकार को निर्देश दिया गया है कि वह प्रत्येक NLU को ₹25 लाख उपलब्ध कराए और चार हफ्तों के भीतर काम शुरू हो।
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इसके अलावा, अदालत ने 13 मार्च 2026 को रिपोर्ट की समीक्षा की तारीख तय की है। वहीं, केंद्र सरकार को 14 अक्टूबर 2025 तक यह जवाब देना होगा कि विकलांग उम्मीदवारों को आरक्षण में अपवर्ड मूवमेंट क्यों नहीं दिया जाता।
फैसले का समापन इन सख्त शब्दों के साथ हुआ: “विकलांग व्यक्ति दूसरे दर्जे के नागरिक नहीं हैं। उनका समानता, गरिमा और समावेशन का अधिकार केवल शब्दों में नहीं, बल्कि जीवन की वास्तविकता में संरक्षित होना चाहिए।”
मामला: रीना बनर्जी एवं अन्य बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार एवं अन्य
निर्णय की तिथि: 12 सितंबर 2025