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सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल हाईकोर्ट का आदेश रद्द किया, कहा-आदिवासी बेटियों पर हिंदू उत्तराधिकार कानून लागू नहीं हो सकता

Vivek G.

सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल हाईकोर्ट का आदेश रद्द किया, कहा-हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता।

सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल हाईकोर्ट का आदेश रद्द किया, कहा-आदिवासी बेटियों पर हिंदू उत्तराधिकार कानून लागू नहीं हो सकता

आदिवासी क्षेत्रों में उत्तराधिकार अधिकारों से जुड़े एक अहम फैसले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 8 अक्टूबर 2025 को हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें बेटियों को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत संपत्ति में हिस्सा देने की बात कही गई थी। न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्र की पीठ ने कहा कि ऐसा निर्देश कानून के तहत मान्य नहीं है क्योंकि यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर तब तक लागू नहीं होता जब तक केंद्र सरकार इसकी अधिसूचना जारी न करे।

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पृष्ठभूमि

यह मामला 2015 के हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले (RSA No. 8 of 2003) से उत्पन्न हुआ था, जिसमें कहा गया था कि “आदिवासी क्षेत्रों की बेटियाँ परंपरागत रीतियों के बजाय हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत संपत्ति की उत्तराधिकारी होंगी।”
हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि आदिवासी महिलाओं को “सामाजिक अन्याय और शोषण” से बचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक है और “समाज के विकास के लिए कानूनों को समय के साथ बदलना चाहिए।”

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लेकिन अपीलकर्ताओं नवांग और अन्य ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उनका कहना था कि हाईकोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र से परे जाकर ऐसा निर्देश जारी किया, जो पक्षकारों के बीच विवादित मुद्दे से संबंधित ही नहीं था।

न्यायालय का अवलोकन

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के निर्णय तिरिथ कुमार बनाम दादूराम (2024) का हवाला दिया, जिसमें यह दोहराया गया था कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 तब तक अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता जब तक केंद्र सरकार अधिसूचना जारी न करे (धारा 2(2) के तहत)।

पीठ ने कहा “कानून के शब्द स्पष्ट हैं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, अनुच्छेद 366(25) के अर्थ में आने वाली किसी भी अनुसूचित जनजाति पर तब तक लागू नहीं हो सकता जब तक केंद्र सरकार अन्यथा निर्देश न दे।”

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न्यायालय ने मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य और महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद जैसे पुराने मामलों का भी उल्लेख किया, जिनमें यह स्पष्ट किया गया था कि जब तक संसद या केंद्र सरकार हस्तक्षेप नहीं करती, तब तक आदिवासी समुदाय अपनी परंपरागत रीतियों से ही संचालित होते हैं।

न्यायमूर्ति करोल ने कहा कि हाईकोर्ट के आदेश का पैराग्राफ 63 “न तो विवाद का हिस्सा था और न ही पक्षकारों की किसी दलील से उत्पन्न हुआ था।” उन्होंने टिप्पणी की—“ये निर्देश किसी भी निर्धारित मुद्दे या याचिका से संबंधित नहीं थे, इसलिए इन्हें कायम नहीं रखा जा सकता।”

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने यह पाते हुए कि हाईकोर्ट का आदेश विधिक रूप से अस्थिर है, 2015 के निर्णय के पैराग्राफ 63 को रिकॉर्ड से हटाने (expunge) का आदेश दिया। इस निर्देश के साथ अपील का निपटारा कर दिया गया।

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अदालत ने सुनवाई के दौरान सहायता प्रदान करने के लिए अमाइकस क्यूरी (न्याय मित्र) के रूप में अधिवक्ता सुश्री रेबेका मिश्रा और अपीलकर्ताओं के वकील श्री राजेश गुप्ता की सराहना की।

इस फैसले के साथ सुप्रीम कोर्ट ने यह दोबारा स्पष्ट कर दिया है कि आदिवासी निजी कानूनों की संवैधानिक सीमाएँ बरकरार रहेंगी और इन्हें केवल संसद या केंद्र सरकार की अधिसूचना से ही बदला जा सकता है।

Case Title: Nawang & Anr. vs Bahadur & Ors.

Case Type: Civil Appeal No. 4980 of 2017

Date of Judgment: October 8, 2025

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