सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक किरायेदार पर कड़ा रुख अपनाया, जिसने बकाया किराया जमा करने की अपनी बात से मुकरने की कोशिश की। उस व्यक्ति ने दावा किया कि उसके वकील ने उसकी सहमति के बिना अदालत में यह बयान दिया था। लेकिन पीठ इस दलील से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हुई और यहां तक कि वकील पर दोष मढ़ने की कोशिश के लिए उसे फटकार लगाई।
पृष्ठभूमि
मामला बेदखली की कार्यवाही से जुड़ा था, जिसमें किरायेदार संतोष गोसाईं को सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 15 नियम 5 के तहत बकाया किराया जमा करने का निर्देश दिया गया था। उच्च न्यायालय ने पहले ही इस आदेश का पालन न करने पर उसकी पैरवी का अधिकार (defence) ख़ारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट में अपील करते हुए गोसाईं ने तर्क दिया कि रिकॉर्ड में दर्ज किया गया बयान उसका नहीं था, बल्कि उसके वकील की “गलती” थी।
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हालांकि, उच्च न्यायालय ने पहले ही नोट कर लिया था कि सुनवाई के दौरान किरायेदार खुद मौजूद था और उसने ही अपने वकील को यह बयान देने का निर्देश दिया था। यही विरोधाभास सर्वोच्च न्यायालय में विवाद का मुख्य कारण बना।
न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया की पीठ ने किरायेदार के रवैये को गंभीरता से लिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब कोई बात अदालत के आदेश में दर्ज हो जाती है, तो उसका महत्व होता है और उसे यूँ ही नकारा नहीं जा सकता।
“पीठ ने कहा, ‘हम इस तर्क से प्रभावित नहीं हैं क्योंकि याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय के सामने जिद्दी रवैया दिखाया… ऐसा आचरण न केवल निंदा योग्य है बल्कि इसे सख़्ती से रोका जाना चाहिए, वरना न्याय की धारा को ऐसी घटनाओं से दूषित किया जा सकता है।’”
सरल शब्दों में, जजों ने संकेत दिया कि प्रक्रिया में शामिल होने के बाद वकील पर दोष मढ़ना दरअसल गुमराह करने की कोशिश है।
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निर्णय
अदालत ने उच्च न्यायालय के आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया और याचिका खारिज कर दी। इसके साथ ही उसने किरायेदार पर ₹10,000 का जुर्माना लगाया और निर्देश दिया कि यह राशि पंजाब मुख्यमंत्री बाढ़ राहत कोष में जमा की जाए।
आदेश अंत में सख़्ती से समाप्त हुआ: “इन परिस्थितियों में हम इस याचिका को ₹10,000 लागत के साथ खारिज करते हैं, जो पंजाब सरकार के मुख्यमंत्री बाढ़ राहत कोष में जमा की जाएगी।”
मामला: संतोष गोसाईं बनाम मेसर्स बेली राम सरीन एवं अन्य।