कलकत्ता हाईकोर्ट ने पॉक्सो (POCSO) अधिनियम के तहत दर्ज मामले में आरोपी को निचली अदालत से मिली जमानत को निलंबित कर दिया है। न्यायमूर्ति विवास पटनायक ने कहा कि जमानत सुनवाई के दौरान पीड़िता को सुने जाने का अधिकार नकारा नहीं जा सकता।
पृष्ठभूमि
यह मामला उस समय उठा जब ट्रायल कोर्ट ने 9 जून 2025 को आरोपी (विपक्षी पक्ष संख्या 2) को जमानत दे दी, बिना पीड़िता या उसके प्रतिनिधि को सूचित किए। इस आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता, जिनका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता कौस्तव बागची ने किया, ने हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। याचिका भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 483(3) के तहत दायर की गई थी, जो पुराने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439(2) के अनुरूप है।
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बागची ने दलील दी कि यह सिद्धांत स्थापित है कि यौन अपराध के मामलों में पीड़ित को जमानत का विरोध करने का अवसर दिया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, "ट्रायल कोर्ट ने इस आवश्यकता को दरकिनार कर दिया, जिससे आदेश अपने आप में दोषपूर्ण हो गया।"
उन्होंने कई पूर्व उदाहरण पेश किए, जिनमें सर्वोच्च न्यायालय का जगजीत सिंह बनाम आशीष मिश्रा (2022) का फैसला शामिल था, जिसमें जमानत सुनवाई में पीड़ित की भागीदारी को स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई थी।
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अदालत की टिप्पणियाँ
राज्य सरकार ने याचिकाकर्ता की दलीलों का समर्थन किया और कहा कि ट्रायल कोर्ट को जमानत सुनवाई के समय पीड़िता की उपस्थिति सुनिश्चित करनी चाहिए थी।
वहीं आरोपी की ओर से अधिवक्ता देबाशीष कर ने तर्क दिया कि जमानत रद्द करना और जमानत आदेश को निरस्त करना दो अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। उनके अनुसार, जमानत तभी रद्द की जा सकती है जब आरोपी रिहाई के बाद स्वतंत्रता का दुरुपयोग करे - जैसे गवाहों को धमकाना या सबूतों से छेड़छाड़ करना। इस मामले में ऐसा कोई आरोप नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि पॉक्सो नियम, 2020 के नियम 4 के अनुसार, पीड़ित को सूचित करने की जिम्मेदारी पुलिस की होती है, आरोपी की नहीं।
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लेकिन न्यायमूर्ति पटनायक इस तर्क से सहमत नहीं हुए। उन्होंने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483(2) का हवाला देते हुए कहा कि कानून नाबालिगों के खिलाफ यौन अपराधों के मामलों में पीड़ित की उपस्थिति को अनिवार्य बनाता है।
उन्होंने जगजीत सिंह मामले से उद्धरण देते हुए कहा,
"पीड़ितों को दूर बैठकर कार्यवाही को देखने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, खासकर जब उनके पास वैध शिकायतें हो सकती हैं।"
बेंच ने स्पष्ट किया कि नाबालिगों से जुड़े मामलों में ट्रायल कोर्ट को जमानत सुनवाई से पहले पीड़ित या सूचक को सूचना देना अनिवार्य है, अन्यथा उनका भागीदारी का अधिकार "भ्रमात्मक" हो जाएगा।
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निर्णय
हाईकोर्ट ने माना कि ट्रायल कोर्ट पीड़िता की भागीदारी सुनिश्चित करने में विफल रहा और इस आधार पर 9 जून का जमानत आदेश तीन सप्ताह के लिए निलंबित कर दिया। आरोपी को 11 सितंबर 2025 को ट्रायल कोर्ट में आत्मसमर्पण कर नई जमानत अर्जी दायर करने का निर्देश दिया गया है।
न्यायमूर्ति ने यह भी स्पष्ट किया कि मामले के गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त नहीं की गई है और ट्रायल कोर्ट स्वतंत्र रूप से इस पर निर्णय करेगा। अगली सुनवाई में पीड़िता या उसका प्रतिनिधि मौजूद रहना अनिवार्य होगा और लोक अभियोजक को केस डायरी प्रस्तुत करनी होगी।
यह मामला अब 18 सितंबर 2025 को हाईकोर्ट में फिर से सूचीबद्ध होगा।