कलकत्ता हाईकोर्ट ने विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी को बड़ी राहत देते हुए उनके खिलाफ पश्चिम बंगाल भर में दर्ज कई आपराधिक मामलों को रद्द कर दिया है। न्यायमूर्ति जय सेनगुप्ता ने 24 अक्टूबर 2025 को यह फैसला सुनाते हुए कहा कि अधिकारी के खिलाफ दर्ज एफआईआर की बाढ़ “राजनीतिक प्रतिशोध का स्पष्ट संकेत” देती है।
300 से अधिक पृष्ठों वाले इस विस्तृत फैसले में दो रिट याचिकाओं और एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई की गई, जिन्हें समान तथ्यों और आरोपों के चलते एक साथ निपटाया गया।
पृष्ठभूमि
अधिकारी, जो कभी तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे, दिसंबर 2020 में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए और 2021 में नंदीग्राम विधानसभा सीट से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हराकर सुर्खियों में आए। इसके तुरंत बाद, राज्यभर में उनके खिलाफ रिश्वतखोरी, अवैध सभा, मानहानि और अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार अधिनियम के तहत कई शिकायतें दर्ज हो गईं।
अधिकारी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाते हुए कहा कि तेईस एफआईआरें “राजनीतिक दुर्भावना” से तैयार की गई हैं ताकि उन्हें पार्टी बदलने की सजा दी जा सके। उनके वकील बिल्वदल भट्टाचार्य ने दलील दी कि "हर मामला पिछले का कार्बन कॉपी है” और पुलिस “सत्तारूढ़ दल के विस्तार के रूप में काम कर रही है।"
वहीं राज्य सरकार की ओर से महाधिवक्ता किशोर दत्ता और वरिष्ठ अधिवक्ता कल्याण बंद्योपाध्याय ने कहा कि एफआईआर में संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है और जांच कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है। उन्होंने तर्क दिया, “राजनीतिक पद किसी व्यक्ति को आपराधिक कानून से छूट नहीं देता।”
अदालत की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति सेनगुप्ता ने सभी 23 मामलों का विस्तार से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए पाया कि कई शिकायतें “शब्द दर शब्द एक जैसी” थीं, जो अलग-अलग थानों में कुछ मिनटों के अंतर पर दर्ज की गई थीं। कुछ मामलों में कोई हिंसा या क्षति नहीं हुई थी, फिर भी प्राथमिकी दर्ज की गई, जबकि अन्य मामलों में पुराने बंद मामलों को आत्महत्या से हत्या में बदल दिया गया।
अदालत ने टिप्पणी की-
“घटनाओं का क्रम याचिकाओं से अधिक बोलता है। यह अनदेखा नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक निष्ठा बदलने के तुरंत बाद ही एफआईआरों की बाढ़ आ गई। ऐसा प्रतीत होता है कि दंड प्रक्रिया को असहमति को दबाने के हथियार के रूप में प्रयोग किया गया।”
State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) के संदर्भ में अदालत ने दोहराया कि यदि कोई मामला राजनीतिक द्वेष या दुर्भावना से प्रेरित है तो उसे रद्द किया जा सकता है। अदालत ने 2021 और 2022 में पारित अपने अंतरिम आदेशों का भी उल्लेख किया, जिनमें जांच पर रोक लगाई गई थी और जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा था।
दो शिकायतों में लगाए गए अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के आरोपों पर न्यायमूर्ति सेनगुप्ता ने पाया कि कथित भाषण में जाति या जनजाति का कोई उल्लेख ही नहीं था। उन्होंने कहा-“अनुसूचित जाति या जनजाति के सदस्य को किया गया हर अपमान इस अधिनियम के तहत अपराध नहीं होता, जब तक वह अपमान उसकी जाति या जनजाति की वजह से न हो।” यह अवलोकन उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के Shajan Skaria v. State of Kerala (2024) फैसले के हवाले से किया।
अदालत ने कई एफआईआरों में देरी और प्राथमिक जांच के अभाव को भी गंभीरता से लिया और कहा कि यह Lalita Kumari v. State of U.P. के सिद्धांतों के विपरीत है। न्यायाधीश ने लिखा, “पुलिस द्वारा जिन मामलों में एफआईआर दर्ज की गई, वह या तो वर्षों बाद या बिना किसी सत्यापन के कुछ घंटों में दर्ज हुईं। ऐसा चयनात्मक उत्साह निष्पक्षता पर संदेह पैदा करता है।”
“पुलिस द्वारा प्रदर्शित असाधारण तत्परता,” उन्होंने कहा, “सामान्य मामलों में उसकी निष्क्रियता से मेल नहीं खाती। यह पूर्वाग्रह का स्पष्ट प्रमाण है।”
निर्णय
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि एक “राजनीतिक प्रताड़ना का सुनियोजित पैटर्न” स्थापित हो चुका है, और इस आधार पर 23 में से 17 एफआईआरों को तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया गया। शेष छह मामलों में, जहाँ कुछ साक्ष्य मौजूद थे, अदालत ने जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को सौंपने का आदेश दिया ताकि निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके।
न्यायमूर्ति सेनगुप्ता ने कहा-
“राज्य पुलिस ने इस मामले में अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो दी है।” अदालत ने आगे आदेश दिया कि बिना हाईकोर्ट की पूर्व अनुमति के अधिकारी के खिलाफ कोई नई एफआईआर दर्ज नहीं की जाएगी।
फैसले के अंत में न्यायाधीश ने कहा,
“लोकतंत्र तब फलता-फूलता है जब विपक्ष की आवाज़ को दबाया नहीं, सुना जाता है। आपराधिक कानून राजनीतिक संघर्ष का हथियार नहीं बन सकता।”
अदालत ने आदेश दिया कि फैसले की प्रमाणित प्रति तुरंत सीबीआई निदेशक और राज्य के मुख्य सचिव को भेजी जाए ताकि आदेश का पालन सुनिश्चित किया जा सके।