मध्य प्रदेश हाईकोर्ट, जबलपुर ने हाल ही में रेलवे सुरक्षा बल (RPF) के कर्मियों रोहित चतुर्वेदी और शीतल सिंह चौहान द्वारा दायर एक आपराधिक पुनर्विचार याचिका (CRR No. 126/2025) को खारिज कर दिया। याचिकाकर्ताओं ने चौथे अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, जबलपुर द्वारा भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 294, 379, 384 और 477 के तहत उनके खिलाफ तय किए गए आरोपों को चुनौती दी थी। 4 अगस्त, 2025 को माननीय न्यायमूर्ति देवनारायण मिश्रा द्वारा सुनाए गए इस निर्णय में CrPC की धारा 197 और आरपीएफ अधिनियम की धारा 20(3) के तहत सार्वजनिक सेवकों के संरक्षण से संबंधित प्रमुख कानूनी सिद्धांतों को पुनः स्थापित किया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 2011 की एक घटना से उत्पन्न हुआ, जहां शिकायतकर्ता सुश्री सरोज विश्वकर्मा ने आरोप लगाया कि RPF कर्मियों ने उन्हें जबलपुर रेलवे स्टेशन पर रोका, उन पर दिव्यांगों के लिए आरक्षित डिब्बे में यात्रा करने का आरोप लगाया और जबरन उनके बैग से 5,000 रुपये ले लिए। शिकायत में यह भी कहा गया कि उनका रेलवे टिकट फाड़ दिया गया और उनके साथ गाली-गलौज की गई। आईपीसी की धारा 384, 341, 506 और 294 के तहत एफआईआर दर्ज की गई।
ट्रायल कोर्ट ने रोहित चतुर्वेदी के खिलाफ IPC की धारा 294 (अश्लीलता), 379 (चोरी), 384 (जबरन वसूली) और 477 (दस्तावेजों को धोखे से रद्द/नष्ट करना) के तहत आरोप तय किए, और शीतल सिंह चौहान के खिलाफ धारा 341 (गलत तरीके से रोकना) के तहत आरोप तय किए।
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याचिकाकर्ताओं ने निम्नलिखित तर्क दिए:
- साक्ष्य का अभाव: आरोप बिना उचित साक्ष्य के तय किए गए। अभियोजन ने एक "झूठी और गढ़ी हुई" पुलिस रिपोर्ट पर भरोसा किया।
- धारा 197 CrPC के तहत संरक्षण: सार्वजनिक सेवक होने के नाते, उन्होंने धारा 197 CrPC के तहत प्रतिरक्षा का दावा किया, जो आधिकारिक क्षमता में किए गए कार्यों के लिए सार्वजनिक सेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले अनुमति की आवश्यकता होती है।
- शिकायतकर्ता के बयान में विसंगतियां: शिकायतकर्ता के स्कूल उपस्थिति रजिस्टर (RTI के माध्यम से प्राप्त) से पता चला कि वह आरोपित यात्रा तिथियों पर जबलपुर में मौजूद थी, जो उसके एफआईआर के दावों का खंडन करती है।
- कानूनी नजीरें: उन्होंने मोंटेक सिंह बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और एच.वी. नागराजू बनाम कर्नाटक राज्य जैसे निर्णयों का हवाला दिया ताकि यह तर्क दिया जा सके कि ट्रायल कोर्ट ने RPF अधिनियम और CrPC के तहत संरक्षण को नजरअंदाज कर दिया।
न्यायमूर्ति मिश्रा ने पुनर्विचार याचिका को खारिज करते हुए कहा:
"आरोप तय करने के चरण में, अदालत बचाव पक्ष के साक्ष्य पर विचार करने के लिए बाध्य नहीं है। स्कूल रजिस्टर जैसे दस्तावेजों की सत्यता का परीक्षण ट्रायल के दौरान किया जाना चाहिए।"
- धारा 197 CrPC के तहत अनुमति: अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने प्रारंभिक कार्यवाही के दौरान इस मुद्दे को उठाने में विफल रहे, जिससे यह पुनर्विचार चरण में असंगत हो गया।
- बचाव पक्ष का साक्ष्य: उड़ीसा राज्य बनाम देवेंद्र नाथ पाधी का हवाला देते हुए, अदालत ने कहा कि आरोप तय करने के दौरान बचाव पक्ष के साक्ष्य पर विचार नहीं किया जा सकता।
- रेलवे टिकट का मूल्य: अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि इस्तेमाल किया गया टिकट "मूल्यवान प्रतिभूति" नहीं है, यह कहते हुए कि यह यात्रा भत्ते या कानूनी साक्ष्य के लिए प्रमाण के रूप में काम आ सकता है।
- षड्यंत्र के आरोप: शिकायतकर्ता और वकील सौरभ शर्मा के बीच सांठगांठ के दावों को ट्रायल के दौरान जांच के लिए साक्ष्य संबंधी मामले बताया गया।
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पुनः स्थापित प्रमुख कानूनी सिद्धांत
- धारा 197 CrPC: सार्वजनिक सेवकों की रक्षा करती है लेकिन समय पर आवेदन की आवश्यकता होती है।
- आरोप तय करना: अदालतों को "डाकघर" की तरह कार्य किए बिना व्यापक संभावनाओं का आकलन करना चाहिए (मधु लिमये बनाम महाराष्ट्र राज्य)।
- बचाव पक्ष का साक्ष्य: आरोप तय करने के चरण में स्वीकार नहीं किया जा सकता (उड़ीसा राज्य बनाम देवेंद्र नाथ पाधी)।
निर्णय से अंतिम उद्धरण
"बिना ट्रायल के, याचिकाकर्ताओं को केवल इस आधार पर छुट्टा नहीं किया जा सकता कि साक्ष्य कमजोर लगता है या आरोप असंभव प्रतीत होते हैं।"
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यह फैसला सार्वजनिक सेवकों से जुड़े मामलों में अदालतों द्वारा अपनाए गए संतुलित दृष्टिकोण की याद दिलाता है, जहां जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए तुच्छ मुकदमों से सुरक्षा प्रदान की जाती है।
केस का शीर्षक: रोहित चतुर्वेदी एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य
केस संख्या: आपराधिक पुनरीक्षण संख्या 126/2025 (तटस्थ उद्धरण: 2025:MPHC-JBP:36072)