रांची स्थित झारखंड हाईकोर्ट ने 11 सितम्बर 2025 को सुनाए गए एक विस्तृत फ़ैसले में सीधे दाख़िल की गई आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ताओं को पहले सेशन कोर्ट जाना चाहिए, जब तक कोई विशेष या असाधारण कारण प्रस्तुत न हो।
पृष्ठभूमि
यह मामला क्रिमिनल रिवीजन नंबर 417/2023 से जुड़ा है, जिसे तीन याचिकाकर्ताओं – धरम कुमार साव उर्फ धरम कुमार गुप्ता (41), शंभु साव (65) और मुंदरी देवी (55) – ने दाख़िल किया था। उन्होंने धनबाद के न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा 25 फरवरी 2023 को पारित आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उनके डिस्चार्ज (मुक्ति) की अर्जी दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 245 के तहत ख़ारिज कर दी गई थी।
Read also:- केरल हाई कोर्ट केस मैनेजमेंट सिस्टम में वकीलों और वादकारियों के लिए व्हाट्सएप मैसेजिंग शुरू करेगा
सेशन कोर्ट जाने के बजाय याचिकाकर्ता सीधे हाईकोर्ट पहुंच गए। उनके वकील ने दलील दी कि क्योंकि सेशन कोर्ट और हाईकोर्ट, दोनों के पास धारा 397 CrPC (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, BNSS की धारा 438) के तहत समान पुनरीक्षण अधिकार हैं, इसलिए यह litigant (विचारार्थ पक्ष) की पसंद है कि वह किस मंच को चुने।
अदालत की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति संजय कुमार द्विवेदी ने राज्य और शिकायतकर्ता रेसम साव देवी सहित सभी पक्षों की दलीलें सुनीं। पीठ ने सीधा सवाल उठाया - याचिकाकर्ताओं ने सेशन कोर्ट को क्यों दरकिनार किया?
याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले सीबीआई बनाम गुजरात राज्य (2007) पर भरोसा जताया और कहा कि सीधे हाईकोर्ट में पुनरीक्षण दाख़िल करना क़ानूनन मान्य है। उनका कहना था कि एक बार सेशन कोर्ट में पुनरीक्षण दाख़िल और खारिज हो जाए, तो हाईकोर्ट में दूसरी बार पुनरीक्षण पर रोक है। इसलिए हाईकोर्ट का रास्ता पहले चुनना उचित था।
Read also:- पटना हाईकोर्ट ने पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार दिलाया, पति की तलाक दलील खारिज
लेकिन न्यायाधीश ने प्रणब कुमार मित्र बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1959) और पद्मनाभ केशव कामत बनाम अनुप आर. कान्तक (1999) जैसे मामलों का हवाला दिया। उन्होंने कहा,
"निस्संदेह, सीधे हाईकोर्ट में पुनरीक्षण दाख़िल करने पर कोई वैधानिक रोक नहीं है। लेकिन शिष्टाचार और न्यायिक मर्यादा यही मांगती है कि मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ़ पहले निकटवर्ती उच्च मंच यानी सेशन कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना चाहिए।"
अदालत ने ज़ोर देकर कहा कि पुनरीक्षण शक्तियाँ विवेकाधीन होती हैं और उनका इस्तेमाल बेहद सीमित और विरल परिस्थितियों में होना चाहिए। जब तक कोई "विशेष और असाधारण परिस्थिति" न हो – जैसे सेशन जज का किसी कारणवश पक्षपात से जुड़ाव – तब तक सीधे हाईकोर्ट जाना न्यायसंगत नहीं माना जाएगा।
Read also:- ब्रेकिंग: सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी संवैधानिक चुनौती के बीच वक्फ संशोधन अधिनियम, 2025 पर रोक लगाने से इनकार किया
निर्णय
लंबे क़ानूनी विश्लेषण और कई फैसलों का हवाला देने के बाद हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप से इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति द्विवेदी ने कहा,
"यह अदालत उस पुनरीक्षण याचिका पर विचार नहीं करेगी जिसे सेशन जज भी सुन और तय कर सकते हैं। याचिकाकर्ताओं को कोई नुकसान नहीं होगा यदि सेशन जज अपने पुनरीक्षण अधिकारों का उपयोग करते हैं।"
नतीजतन, आपराधिक पुनरीक्षण याचिका ख़ारिज कर दी गई। हालांकि, अदालत ने याचिकाकर्ताओं को छूट दी कि वे ताज़ा पुनरीक्षण याचिका सेशन जज के समक्ष दाख़िल कर सकते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि वर्तमान याचिका में गुज़रा समय उनकी सीमा-सीमा (limitation period) में नहीं गिना जाएगा।
ध्यान रखते हुए कि याचिकाकर्ताओं को पहले अंतरिम संरक्षण मिला था, अदालत ने उसे एक और महीने तक बढ़ा दिया ताकि वे सेशन कोर्ट का रुख़ कर सकें।
इसके साथ ही मामला निपटा दिया गया, और अब याचिकाकर्ताओं को अपना मुक़दमा निचली पुनरीक्षण अदालत में ले जाना होगा।
केस का शीर्षक:- धरम कुमार साव @ धरम क्र. गुप्ता एवं अन्य। बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य।
केस नंबर:- क्रिमिनल रिवीजन नंबर 417/2023