जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक वैवाहिक विवाद में दायर FIR को रद्द कर दिया है। इस फैसले में कोर्ट ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bhartiya Nagarik Suraksha Sanhita - BNSS) की धारा 528 के तहत अपने अंतर्निहित अधिकारों का उपयोग किया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये अधिकार, जो अब निरस्त हो चुकी दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के समकक्ष हैं, धारा 359 BNSS (पूर्व में CrPC की धारा 320) द्वारा सीमित नहीं किए जा सकते जब न्याय की आवश्यकता हो।
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मामले की पृष्ठभूमि
न्यायमूर्ति मोहम्मद यूसुफ वानी ने यह आदेश CRM(M) No. 125/2020 में पारित किया। यह याचिका मोहम्मद इस्माईल कोका द्वारा दायर की गई थी। मामला FIR संख्या 100/2020 से संबंधित था, जो पुलिस स्टेशन ज़ैनपोरा, शोपियां में IPC की धारा 452 (घर में घुसपैठ) और 376B (वैवाहिक बलात्कार) के तहत दर्ज की गई थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि उसकी पत्नी (प्रतिवादी संख्या 3) ने उस पर झूठा मुकदमा दायर किया और FIR उनके परिवार के दबाव में दर्ज करवाई गई, जो कि एक "खुला नामा" (तलाक) के बाद हुआ।
याचिकाकर्ता के अनुसार, शादी 2018 में हुई थी, लेकिन विवाद के चलते अलगाव हुआ और दोनों पक्षों के बीच आपसी सहमति से विवाद निपटा लिया गया। 13.09.2022 को एक औपचारिक समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर किए गए, जिसे कोर्ट में प्रस्तुत किया गया।
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याचिकाकर्ता के वकील शाहबाज सिकंदर ने तर्क दिया कि यह विवाद व्यक्तिगत प्रकृति का है और इसका समाधान आपसी सहमति से हो चुका है, इसलिए आपराधिक कार्यवाही को जारी रखना "प्रक्रिया का दुरुपयोग" होगा। उन्होंने निम्नलिखित सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला दिया:
- Parbatbhai Aahir vs State of Gujarat (2017)
- Kapil Gupta vs State (NCT of Delhi) (2022)
इन फैसलों में कहा गया है कि यहां तक कि गैर-समझौतायोग्य अपराधों को भी हाईकोर्ट, विशेष परिस्थितियों में न्याय को सुनिश्चित करने हेतु रद्द कर सकती है।
राज्य की ओर से डिप्टी एडवोकेट जनरल मुबाशिर मजीद मलिक ने याचिका का विरोध किया और कहा कि IPC की धारा 452 और 376B के तहत दर्ज अपराध गैर-समझौतायोग्य हैं, और केवल समझौते के आधार पर इन्हें रद्द करना न्याय के साथ खिलवाड़ होगा।
न्यायमूर्ति वानी ने अपने फैसले में कहा कि BNSS की धारा 528 के अंतर्गत असाधारण शक्तियां निहित हैं, जिनका प्रयोग अन्याय को रोकने के लिए किया जा सकता है। उन्होंने कहा:
"दंड संहिता की धारा 320 (BNSS की धारा 359) की प्रावधानें इस न्यायालय की शक्तियों को सीमित करती हैं, परन्तु प्रतिबंधित नहीं करतीं… असाधारण शक्तियों का प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में न्याय के हित में किया जाना चाहिए।"
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उन्होंने आगे कहा कि वैवाहिक विवाद, जब सुलझा लिया गया हो और जिसमें कोई सामाजिक या सार्वजनिक प्रभाव न हो, तो उसे व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।
कोर्ट ने कई सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला दिया, जिनमें शामिल हैं:
- Gian Singh vs State of Punjab (2012) “हाईकोर्ट को यह देखना चाहिए कि क्या आपराधिक कार्यवाही को जारी रखना न्याय के विरुद्ध होगा और यदि हां, तो उसे समाप्त किया जा सकता है।”
- Narender Singh vs State of Punjab (2014) “धारा 482 के तहत शक्ति का प्रयोग केवल न्याय सुनिश्चित करने या प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए किया जाना चाहिए।”
- Kapil Gupta vs State (2022) “हालांकि गंभीर अपराधों में FIR रद्द नहीं की जानी चाहिए, लेकिन यदि पीड़िता खुद ही मुकदमा नहीं चाहती और इससे उसे मानसिक राहत मिलती है, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।”
- Satish Mehra vs Delhi Administration (1996) “जब न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि मुकदमे से सजा की कोई संभावना नहीं है, तो केवल प्रक्रिया पूरी करने के लिए समय बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए।”
- Madan Mohan Abott vs State of Punjab (2008) “व्यक्तिगत प्रकृति के विवादों में समझौते को आपराधिक मामलों में भी स्वीकार किया जाना चाहिए।”
- Jagdish Chanan vs State of Haryana (2008) “जब विवाद केवल व्यक्तिगत हो और कोई सार्वजनिक हित न जुड़ा हो, तो आपराधिक कार्यवाही को जारी रखना केवल औपचारिकता मात्र होगी।”
यह पाते हुए कि शिकायतकर्ता अब अभियोजन का समर्थन नहीं कर रही हैं और मामला आपसी सहमति से सुलझ चुका है, हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया:
“उपरोक्त चर्चा के आलोक में, याचिका स्वीकार की जाती है और FIR संख्या 100/2020 दिनांक 29.07.2020, जो पुलिस स्टेशन ज़ैनपोरा, शोपियां में IPC की धारा 452 और 376B के तहत दर्ज की गई थी, उसे और इससे संबंधित सभी आपराधिक कार्यवाही को रद्द किया जाता है।”
कोर्ट ने आगे कहा:
“निकट संबंधियों के बीच आपराधिक मुकदमे अक्सर वैवाहिक या सिविल विवादों से उत्पन्न होते हैं और जब ऐसे मामलों में कोई घातक अपराध शामिल नहीं होता, तो अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग कर कार्यवाही को रद्द करना न्याय के हित में होता है।”
केस का शीर्षक: मोहम्मद इस्माइल कोका बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य