Logo
Court Book - India Code App - Play Store

advertisement

सुप्रीम कोर्ट ने POCSO दोषी की ज़मानत रद्द की, न्यायिक औचित्य की कमी का दिया हवाला

Shivam Y.

सुप्रीम कोर्ट ने POCSO अधिनियम के तहत दोषी को दी गई ज़मानत रद्द की। राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा ज़मानत देने की प्रक्रिया को अनुचित बताया गया, साथ ही पीड़िता के बयान और FSL रिपोर्ट को गंभीरता से लिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने POCSO दोषी की ज़मानत रद्द की, न्यायिक औचित्य की कमी का दिया हवाला

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें POCSO अधिनियम के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्ति को ज़मानत दी गई थी। मामला एक नाबालिग लड़की से बंदूक की नोक पर कथित बलात्कार से जुड़ा है। शीर्ष अदालत ने अपराध की गंभीरता और ज़मानत देने में हुई प्रक्रियागत चूक पर चिंता जताई।

Read in English

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील नाबालिग पीड़िता के पिता द्वारा दायर की गई थी, जिसमें 3 सितंबर 2024 को राजस्थान उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी गई थी। इसमें आरोपी को सज़ा के दौरान अपील लंबित रहने तक ज़मानत दे दी गई थी। आरोपी को POCSO अधिनियम की धारा 3/4(2) के तहत 20 वर्ष के कठोर कारावास की सज़ा सुनाई गई थी और ₹50,000 का जुर्माना लगाया गया था। लेकिन केवल 1 वर्ष और 3 महीने की सज़ा काटने के बाद ही उच्च न्यायालय ने ज़मानत दे दी थी।

Read also:- सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के न्यायाधीश की 'इन-हाउस प्रक्रिया' के खिलाफ याचिका पर सुनवाई की

उच्च न्यायालय की दलीलों पर सवाल

"पीड़िता के शरीर पर यौन उत्पीड़न के कोई निशान नहीं मिले... DNA या FSL रिपोर्ट उपलब्ध नहीं... घर में शौचालय होने के बावजूद पीड़िता बाहर गई, यह विश्वास करना कठिन।"

उच्च न्यायालय ने इसी आधार पर ज़मानत दी थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अपर्याप्त और अनुमानात्मक बताया। शीर्ष अदालत ने कहा कि गंभीर अपराध में सज़ा पाने वाले को ज़मानत देने से पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के तहत आवश्यक पहलुओं पर विचार नहीं किया गया।

निचली अदालत ने पीड़िता के बयान पर विश्वास किया जिसमें उसने विस्तार से घटना का वर्णन किया था। उसने बताया कि आरोपी ने बंदूक की नोक पर उसे पास के एक घर में ले जाकर बलात्कार किया। अदालत ने चिकित्सीय साक्ष्यों, स्कूल रिकॉर्ड और जन्म प्रमाणपत्र से यह भी पुष्टि की कि पीड़िता की उम्र 14 वर्ष 3 माह थी।

Read also:- 13 न्यायाधीशों ने उच्च न्यायालयों पर सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक अधिकार को चुनौती दी

चिकित्सकीय साक्ष्य में चोटों की अनुपस्थिति और FSL रिपोर्ट की प्रतीक्षा के बावजूद, अदालत ने माना कि इससे अभियोजन पक्ष की स्थिति कमजोर नहीं होती। अदालत ने POCSO अधिनियम की धारा 29 और 30 के तहत अभियुक्त के विरुद्ध अनुमान को लागू किया।

आरोपी का आपराधिक इतिहास

राज्य सरकार ने एक हलफनामा दायर किया जिसमें आरोपियों से जुड़े 11 आपराधिक मामलों की सूची दी गई, जिनमें आर्म्स एक्ट और आईपीसी के तहत अपराध भी शामिल हैं। इनमें से 5 में आरोपी बरी हो गए और 6 अभी भी लंबित हैं।

"उच्च न्यायालय ने धारा 389 CrPC के तहत ज़मानत देने के लिए आवश्यक किसी भी प्रासंगिक पहलू पर विचार नहीं किया... ऐसे गंभीर मामलों में ज़मानत देना पूरी तरह से अनुचित है।"

Read also:- पॉक्सो एक्ट के तहत पिता को आजीवन कारावास की सजा बरकरार, पीड़िता को 10.5 लाख मुआवजा देने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश

सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि सज़ा के बाद ज़मानत केवल उन्हीं मामलों में दी जा सकती है जहाँ यह स्पष्ट रूप से प्रतीत होता हो कि दोषसिद्धि न्यायोचित नहीं हो सकती। साथ ही यह भी कहा गया कि ज़मानत शर्तों के उल्लंघन के अभाव में भी, अगर ज़मानत आदेश औचित्यपूर्ण नहीं है, तो उसे रद्द किया जा सकता है।

राज्य सरकार ने यह भी बताया कि जो FSL रिपोर्ट बाद में प्राप्त हुई, उसमें पीड़िता के कपड़ों पर आरोपी के DNA के मौजूद होने की पुष्टि हुई है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय का ज़मानत आदेश रद्द कर दिया। उसने आरोपी को 30 अगस्त 2025 तक POCSO विशेष न्यायालय, करौली (राजस्थान) में आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया, अन्यथा राज्य सरकार को उसे हिरासत में लेने के लिए कहा गया।

"यह टिप्पणियां केवल सज़ा निलंबन के आदेश को रद्द करने के उद्देश्य से की गई हैं।"

केस का शीर्षक: जमनालाल बनाम राजस्थान राज्य और अन्य

Advertisment

Recommended Posts