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एससी/एसटी अत्याचार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जमानत रद्द की, गवाह की हत्या और हाईकोर्ट द्वारा पहले की जमानत दुरुपयोग अनदेखी पर सवाल

Shivam Y.

लक्ष्मणन बनाम राज्य पुलिस उपाधीक्षक एवं अन्य के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी अत्याचार मामले में जमानत रद्द की, गवाह की हत्या और पहले जमानत दुरुपयोग को नजरअंदाज करने पर हाईकोर्ट को आड़े हाथों लिया।

एससी/एसटी अत्याचार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जमानत रद्द की, गवाह की हत्या और हाईकोर्ट द्वारा पहले की जमानत दुरुपयोग अनदेखी पर सवाल

गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के एक हिंसक भूमि विवाद मामले में आरोपियों को दी गई जमानत रद्द करते हुए हस्तक्षेप किया। अदालत ने हाईकोर्ट की तीखी आलोचना की, जिसने अहम तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया था, जिनमें यह तथ्य भी शामिल है कि पहले जमानत पर रहते हुए एक प्रमुख प्रत्यक्षदर्शी की हत्या हो गई थी। यह फैसला एक लंबी और गहन सुनवाई के बाद आया, जहां पीड़ितों के अधिकार, गवाहों की सुरक्षा और न्यायिक विवेक जैसे मुद्दे केंद्र में रहे।

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पृष्ठभूमि

यह मामला फरवरी 2020 का है, जब लक्ष्मणन और उसके मित्र सुरेश पर मदुरै जिले में कृषि भूमि की घेराबंदी के दौरान कथित तौर पर घातक हथियारों से हमला किया गया। लक्ष्मणन, जो अनुसूचित जाति से हैं, ने जातिसूचक गालियों का भी आरोप लगाया, जिससे मामला एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत आया।

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हालांकि आरोपियों को शुरुआत में जमानत मिल गई थी, लेकिन दिसंबर 2022 में मामला गंभीर मोड़ पर पहुंच गया। पहले मामले में मुख्य घायल गवाह रहे सुरेश की कथित तौर पर उन्हीं में से कुछ आरोपियों ने हत्या कर दी। इस घटना के बाद पहले दी गई जमानत रद्द हुई और दूसरा आपराधिक मामला दर्ज हुआ। इसके बावजूद, मद्रास हाईकोर्ट ने अप्रैल 2025 में फिर से जमानत दे दी और दोनों मामलों की संयुक्त सुनवाई का निर्देश भी दे दिया।

लक्ष्मणन ने इस आदेश को Supreme Court of India में चुनौती दी और दलील दी कि आरोपियों ने पहले ही यह दिखा दिया है कि वे मिली हुई स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर सकते हैं।

अदालत की टिप्पणियां

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने स्पष्ट किया कि एससी/एसटी अधिनियम के तहत पीड़ितों को जमानत सुनवाई में सुना जाना आवश्यक है, लेकिन “सुने जाने का अधिकार यह नहीं है कि अदालत हर आपत्ति को स्वीकार ही करे।” पीठ ने यह भी नोट किया कि शिकायतकर्ता को हाईकोर्ट में सुना गया था।

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हालांकि असली समस्या कुछ और थी। न्यायाधीशों ने कहा कि हाईकोर्ट ने निर्णायक तथ्यों पर विचार ही नहीं किया। पीठ ने टिप्पणी की, “एक निर्णायक परिस्थिति - गवाह की हत्या के कारण पहले जमानत रद्द किया जाना - को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया।”

अदालत ने हाईकोर्ट के संयुक्त सुनवाई के निर्देश पर भी आपत्ति जताई। उसने सरल शब्दों में समझाया कि आपराधिक कानून में अलग-अलग सुनवाई सामान्य नियम है और मामलों को जोड़ना अपवाद, जिसके लिए कड़े मानदंड पूरे होने चाहिए। यहां दोनों अपराध अलग-अलग घटनाओं, अलग-अलग वर्षों और अलग-अलग साक्ष्यों से जुड़े थे। जमानत के स्तर पर संयुक्त सुनवाई का आदेश देना, पीठ के अनुसार, कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं था।

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निर्णय

हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को दी गई जमानत समाप्त कर दी और उन्हें दो सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया। पीठ ने कहा, “पहले जमानत के दुरुपयोग, गवाहों को डराने और अपराधों की गंभीरता की अनदेखी करते हुए जमानत देना न्यायिक विवेक का विकृत प्रयोग है।” साथ ही अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि मुकदमे की सुनवाई स्वतंत्र रूप से, केवल गुण-दोष के आधार पर और कानून के अनुसार की जाए।

Case Title: Lakshmanan vs State through the Deputy Superintendent of Police & Others

Case No.: Criminal Appeal of 2025 (arising out of SLP (Crl.) Nos. 6647–6650 of 2025)

Case Type: Criminal Appeal (Bail Cancellation under IPC and SC/ST (Prevention of Atrocities) Act)

Decision Date: 19 December 2025

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