आतंकवाद से प्रभावित परिवारों के पुनर्वास के लिए बनाई गई असम सरकार की नीति से जुड़ा एक पुराना सेवा विवाद आखिरकार मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में समाप्त हो गया। कोर्ट नंबर 3 में न्यायमूर्ति जे.के. महेश्वरी और न्यायमूर्ति विजय बिश्नोई की पीठ ने वर्ष 2000 के शुरुआती दौर से चली आ रही इस लंबी कानूनी लड़ाई पर विराम लगाते हुए गौहाटी हाईकोर्ट द्वारा दिए गए राहत आदेश में संशोधन किया और पुनर्बहाली के स्थान पर आर्थिक मुआवज़ा देने का रास्ता चुना।
पृष्ठभूमि
यह मामला उन व्यक्तियों की नियुक्ति से जुड़ा है जिन्हें आतंकवाद से प्रभावित परिवारों को सहायता देने और उग्रवादियों को मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से बनाई गई विशेष असम सरकारी नीति के तहत लोअर डिवीजन असिस्टेंट (LDA) के पद पर नियुक्त किया गया था। ये नियुक्तियां वर्ष 2001 में की गई थीं, लेकिन बाद में राज्य सरकार ने यह कहते हुए उन्हें रद्द कर दिया कि मुख्य सचिव, जो नियुक्ति प्राधिकारी बताए गए थे, से औपचारिक मंजूरी नहीं ली गई थी।
नियुक्ति रद्द होने से आहत कर्मचारियों ने गौहाटी हाईकोर्ट का रुख किया। वर्ष 2012 में एकल न्यायाधीश ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि ये नियुक्तियां कैबिनेट द्वारा अनुमोदित नीति के अंतर्गत थीं और राज्य स्तरीय सशक्त समिति से स्वीकृत थीं, जिसकी अध्यक्षता स्वयं मुख्य सचिव कर रहे थे। इस आदेश को 2013 में डिवीजन बेंच ने भी बरकरार रखा।
हाईकोर्ट के इस रुख से असंतुष्ट होकर असम राज्य ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। राज्य का तर्क था कि सार्वजनिक रोजगार संविधान के समान अवसर के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए और केवल नीति के आधार पर इससे विचलन उचित नहीं ठहराया जा सकता।
कोर्ट की टिप्पणियां
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस बात पर विचार किया कि क्या राज्य इतने वर्षों बाद केवल प्रक्रिया संबंधी आपत्तियों के आधार पर अपनी ही नीति से मुकर सकता है। न्यायालय ने यह भी नोट किया कि न तो पदों के रिक्त होने पर कोई विवाद था और न ही नियुक्त किए गए लोगों की मूल योग्यता पर।
राज्य द्वारा सार्वजनिक रोजगार से जुड़े सामान्य सिद्धांतों पर दिए गए तर्क को खारिज करते हुए पीठ ने कहा कि असाधारण परिस्थितियों में बनाए गए विशेष राज्य नीति मामलों में अपवाद संभव है। पीठ ने टिप्पणी की,
“सामान्यतः सार्वजनिक रोजगार अनुच्छेद 16 के अनुरूप होना चाहिए, लेकिन जहां आतंकवाद के पीड़ितों के लिए राज्य की नीति के तहत विशेष नियुक्तियां की जाती हैं, वहां यह विचार लागू नहीं हो सकता।” इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों का भी उल्लेख किया गया।
कोर्ट ने हाईकोर्ट की इस टिप्पणी पर भी भरोसा जताया कि कैबिनेट नीति को कभी वापस नहीं लिया गया और कोई भी कार्यकारी अधिकारी उच्च स्तर पर लिए गए फैसले को एकतरफा तरीके से निरस्त नहीं कर सकता। यह भी दोहराया गया कि कर्मचारियों को उस अवधि के लिए कोई बकाया वेतन नहीं दिया गया, जब उन्होंने काम नहीं किया था।
सुनवाई के दौरान आया मोड़
सुनवाई के दौरान मामले में एक अहम मोड़ आया। कोर्ट को बताया गया कि समय के अत्यधिक बीत जाने और मामले की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए राज्य सरकार अब पुनर्बहाली के बजाय एकमुश्त आर्थिक मुआवज़ा देने को तैयार है।
शुरुआत में राज्य ने प्रति व्यक्ति ₹2.5 लाख देने का प्रस्ताव रखा, लेकिन पीठ इससे संतुष्ट नहीं हुई। कोर्ट ने कहा, “यह राशि कम प्रतीत होती है,” और सरकार को नए निर्देश लेने के लिए कहा। इसके बाद असम सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा दाखिल हलफनामे में बताया गया कि लंबित मुकदमेबाजी को देखते हुए 40 उत्तरदाताओं को पूर्ण और अंतिम निपटारे के तौर पर ₹5 लाख प्रति व्यक्ति देने की पेशकश की जा रही है।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए गौहाटी हाईकोर्ट के पूर्व आदेशों में संशोधन किया। अब पुनर्बहाली के बजाय असम सरकार को 40 उत्तरदाताओं में से प्रत्येक को ₹5,00,000 की राशि दो महीने के भीतर अदा करने का निर्देश दिया गया।
पीठ ने आदेश में कहा, “सीखे गए एकल न्यायाधीश और डिवीजन बेंच के आदेशों में उपर्युक्त संशोधन के साथ, वर्तमान अपील का निस्तारण किया जाता है।” इसके साथ ही लंबित सभी आवेदन भी निस्तारित कर दिए गए।
Case Title: State of Assam & Others vs Mukut Ranjan Sarma & Others
Case Number: Civil Appeal No. 15150 of 2017










