न्याय व्यवस्था के हर हिस्से में जवाबदेही सुनिश्चित करने की सख्त याद दिलाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दो केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के निर्देश को रद्द करने से इंकार कर दिया। अदालत ने जोर दिया कि गंभीर आरोपों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, भले ही वे देश की प्रमुख जांच एजेंसी से जुड़े हों।
पृष्ठभूमि
इस मामले की जड़ें दो दशक से भी पुरानी हैं। 2001 में, शीश राम सैनी और विजय अग्रवाल ने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, आरोप लगाते हुए कि सीबीआई के अधिकारी विनोद कुमार पांडे (तत्कालीन इंस्पेक्टर) और नीरज कुमार (तत्कालीन जॉइंट डायरेक्टर) ने कदाचार किया। उनकी शिकायतों में गलत तरीके से हिरासत, गाली-गलौज, धमकियां और आधिकारिक रिकॉर्ड से छेड़छाड़ जैसे गंभीर आरोप शामिल थे।
2006 में, दिल्ली हाईकोर्ट की एकल पीठ ने दिल्ली पुलिस को इन अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया, यह कहते हुए कि शिकायतों में संज्ञेय अपराध (कॉग्नाइजेबल ऑफेंस) का खुलासा होता है। जब अधिकारियों ने इस फैसले को चुनौती दी, तो 2019 में उनकी एलपीए (लेटर्स पेटेंट अपील) खारिज कर दी गई। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
अदालत की टिप्पणियां
अपीलों की सुनवाई करते हुए, जस्टिस पंकज मित्तल की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस बात की पड़ताल की कि क्या हाईकोर्ट का एफआईआर दर्ज करने का निर्देश उचित था। अधिकारियों के वकीलों ने तर्क दिया कि कोई संज्ञेय अपराध सामने नहीं आता और यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने सीबीआई की आंतरिक जांच रिपोर्ट को खारिज कर अपनी सीमा से आगे बढ़कर काम किया, जबकि उस रिपोर्ट ने आरोपों को निराधार बताया था।
इन दलीलों को खारिज करते हुए पीठ ने टिप्पणी की: “अब समय आ गया है कि कभी-कभी जो लोग जांच करते हैं, उनकी भी जांच हो, ताकि जनता का भरोसा व्यवस्था पर कायम रहे।”
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अदालत ने कई चिंताजनक पहलुओं पर प्रकाश डाला: सीबीआई अधिकारियों द्वारा 2000 में जब्त किए गए दस्तावेजों के साथ उचित ज़ब्ती मेमो नहीं था, और एक शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि उसे जमानत आदेश के बावजूद तलब किया गया। धमकी और अपमानजनक भाषा के इस्तेमाल के दावे को भी इतना गंभीर माना गया कि जांच जरूरी समझी गई।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट की टिप्पणियां केवल प्राइमा फेसी (प्रारंभिक) राय हैं। जांच अधिकारी स्वतंत्र रूप से साक्ष्य का आकलन करेंगे और यह तय करेंगे कि आरोपपत्र दाखिल करना है या मामला बंद करना है।
फैसला
हाईकोर्ट के 2006 के आदेश को बरकरार रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को दोनों अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया। हालांकि, इसमें एक संशोधन किया गया—जांच अब स्पेशल सेल (जो आमतौर पर आतंकवाद के मामलों को देखती है) द्वारा नहीं, बल्कि दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी, एसीपी स्तर या उससे ऊपर, द्वारा की जाएगी।
अदालत ने अधिकारियों को सुरक्षा भी प्रदान की, यह कहते हुए कि यदि वे जांच में सहयोग करेंगे तो उनके खिलाफ गिरफ्तारी जैसे कड़े कदम नहीं उठाए जाएंगे, जब तक कि हिरासत में पूछताछ जरूरी न हो। महत्वपूर्ण रूप से, पीठ ने आदेश दिया कि जांच तीन महीने के भीतर पूरी की जानी चाहिए।
यह आदेश एक सख्त संदेश के साथ समाप्त हुआ: “न्याय केवल किया ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए।”
मामला: विनोद कुमार पांडे एवं अन्य बनाम शीश राम सैनी एवं अन्य (संबंधित मामलों सहित)
निर्णय की तिथि: 10 सितंबर 2025