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सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के 'प्राइवेट फॉरेस्ट' भूमि टैग रद्द किए, कहा-कब्जे और नोटिस की प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ

Vivek G.

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र की ‘प्राइवेट फॉरेस्ट’ भूमि प्रविष्टियाँ रद्द कीं, कहा प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ। राजस्व रिकॉर्ड सुधरेंगे, राज्य नई कार्यवाही कर सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के 'प्राइवेट फॉरेस्ट' भूमि टैग रद्द किए, कहा-कब्जे और नोटिस की प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ

नई दिल्ली में इस सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र की कई भूमि पर प्रभाव डालने वाला एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। जस्टिस विक्रम नाथ की अगुवाई वाली बेंच ने बॉम्बे हाई कोर्ट के 2018 के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें राज्य सरकार के इस दावे को सही ठहराया गया था कि कुछ निजी भूमि “प्राइवेट फॉरेस्ट” हैं और इसलिए राज्य में निहित मानी जाएंगी। कोर्ट ने पाया कि जमीन को सरकारी संपत्ति घोषित करने से पहले राज्य द्वारा अनिवार्य कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।

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Background (पृष्ठभूमि)

विवाद की शुरुआत 1960 के दशक में जारी किए गए उन नोटिसों से जुड़ी है, जिन्हें भारतीय वन अधिनियम की धारा 35(3) के तहत भेजा गया बताया गया था। ये नोटिस जमीन मालिकों को यह सूचित करने के लिए थे कि उनकी भूमि वन नियमन के दायरे में लाई जा रही है। मगर अधिकांश भूमि मालिकों ने कहा कि उन्हें ऐसे किसी नोटिस की निजी सेवा कभी नहीं हुई।

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कई दशकों तक भूमि निजी रिकॉर्ड में दर्ज रही। न राज्य ने कब्जा लिया, न मुआवजा दिया गया, और न ही भूमि के उपयोग में कोई हस्तक्षेप हुआ। जमीन मालिक खेती करते रहे, भूमि हस्तांतरित होती रही और स्थानीय प्राधिकरणों ने इसे निजी भूमि के रूप में स्वीकार भी किया।

हालांकि 2000 के दशक में राज्य सरकार ने अचानक राजस्व रिकॉर्ड में संशोधन कर इन जमीनों को “प्राइवेट फॉरेस्ट” चिह्नित करना शुरू कर दिया। इससे भूमि लेन-देन रुक गए और बड़े पैमाने पर मुकदमे दायर हुए।

Court’s Observations (कोर्ट की टिप्पणियाँ)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका एक अनुशासित व्यवस्था में काम करती है, जिसमें निचली अदालतों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय सिद्धांतों का पालन करना होता है। कोर्ट ने साफ कहा कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने Godrej & Boyce vs State of Maharashtra (2014) में दिए गए निर्णय को सही तरीके से लागू नहीं किया।

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कोर्ट ने स्पष्ट किया कि 1960 में केवल राजपत्र में नोटिस प्रकाशित कर देने भर से निजी भूमि को राज्य द्वारा अधिग्रहित नहीं माना जा सकता। “बेंच ने कहा, ‘धारा 35 के तहत नोटिस का “जारी” होना, उसके सेवा किए जाने से अलग नहीं किया जा सकता। सेवा के बिना आपत्ति का अधिकार निरर्थक हो जाता है।’”

कोर्ट ने यह भी कहा कि न राज्य ने कब्जा लिया, न माप-जोख की कार्यवाही की, न मुआवजा प्रक्रिया हुई, और न ही उस समय वन अधिग्रहण अधिनियम के तहत कोई वास्तविक कदम उठाया गया। कई मामलों में परिवार पीढ़ियों से उसी भूमि पर खेती करते रहे।

Decision (निर्णय)

सुप्रीम कोर्ट ने सभी अपीलों को स्वीकार किया, बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला रद्द किया और सभी “प्राइवेट फॉरेस्ट” वाले म्युटेशन प्रविष्टियों को खत्म कर दिया।
राजस्व रिकॉर्ड में फिर से निजी स्वामित्व बहाल करने का निर्देश दिया गया।

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हालांकि, कोर्ट ने राज्य को भविष्य में, सही और कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए, कार्यवाही शुरू करने की स्वतंत्रता दी:"राज्य चाहे तो कानून के अनुसार नई प्रक्रिया शुरू कर सकता है, पर उचित कानूनी कदमों का पालन आवश्यक है।”

यह फैसला भूमि मालिकों के लिए वर्षों से चली आ रही अनिश्चितता को समाप्त करता है-कम से कम अभी के लिए।

Case Title: Rohan Vijay Nahar & Others vs State of Maharashtra & Others

Court: Supreme Court of India

Bench: Justice Vikram Nath and Justice Prasanna B. Varale

Case Type: Civil Appeals (Batch of 96 Appeals)

Citation:2025 INSC 1296

Decided On:07 November 2025

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