मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक विस्तृत फैसले में कोयंबटूर स्थित एक व्यावसायिक संपत्ति से किरायेदारों के निष्कासन को बरकरार रखा। अदालत ने कहा कि वर्षों तक किराया भुगतान में देरी “जानबूझकर डिफॉल्ट” के समान है। लगभग दो दशकों से विभिन्न अदालतों में चल रहे इस विवाद पर शीर्ष अदालत ने सख्त टिप्पणी की-“अपील लंबित रहने का मतलब यह नहीं कि किराया देना बंद कर दिया जाए।”
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता द्वारा लिखित और न्यायमूर्ति मनमोहन द्वारा अनुमोदित इस फैसले में, अदालत ने के. सुब्रमणियम (मृत) के उत्तराधिकारियों की अपील को खारिज कर दिया। वे एम/एस कृष्णा मिल्स प्रा. लि. की संपत्ति पर किरायेदार थे। अदालत ने उन्हें छह महीने के भीतर संपत्ति खाली करने का समय दिया।
पृष्ठभूमि
यह विवाद वर्ष 1999 में शुरू हुआ, जब कृष्णा मिल्स ने अपनी संपत्ति के तीन हिस्से प्रत्येक लगभग 5,000 वर्ग फुट सुब्रमणियम की फर्म रॉयल एजेंसीज को किराये पर दिए। मकान मालिक के अनुसार, तय किराया ₹48,000 प्रति माह था; जबकि किरायेदार ने दावा किया कि यह केवल ₹33,000 था।
2004 में मकान मालिक ने किराया नियंत्रक, कोयंबटूर के समक्ष “उचित किराया” (Fair Rent) तय करने की याचिका दायर की, यह कहते हुए कि तय किराया बाजार दर से बहुत कम है। निरीक्षण के बाद, नियंत्रक ने फरवरी 2005 से प्रभावी ₹2,43,600 प्रति माह का उचित किराया निर्धारित किया। इस आदेश के बाद वर्षों तक अपीलें और पुनरीक्षण चलते रहे।
किरायेदार ने इस राशि को चुनौती दी और अदालतों द्वारा दिए गए अंतरिम आदेशों के तहत आंशिक भुगतान करता रहा। 2011 में हाईकोर्ट ने किराया थोड़ा घटाकर ₹2,37,500 किया, परंतु बकाया बढ़ता गया। जब तक मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा, बकाया राशि एक करोड़ रुपये से अधिक हो चुकी थी।
अदालत के अवलोकन
न्यायमूर्ति दत्ता ने अपने निर्णय में किरायेदारों के व्यवहार को सख्ती से देखा। पीठ ने कहा कि कभी भी किराया आदेश पर स्थगन (stay) नहीं लिया गया, इसलिए किरायेदार बाध्य थे कि वे तय किराया भुगतान करें। इसके बावजूद उन्होंने वर्षों तक केवल पुराना किराया ही दिया।
“केवल अपील दाखिल करने से आदेश पर स्थगन नहीं लग जाता,” अदालत ने याद दिलाया, और सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 5 का हवाला दिया।
अदालत ने गिरिधरिलाल चंदक एंड ब्रदर्स बनाम मेहदी इस्पहानी में मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को उद्धृत किया, जहाँ कहा गया था कि यदि कोई अपीलकर्ता स्थगन नहीं मांगता, तो उसे माना जाएगा कि वह निचली अदालत के आदेश को स्वीकार करता है।
किरायेदारों की यह दलील कि उनकी देरी लंबित अपीलों के कारण हुई, कोर्ट ने खारिज कर दी। न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा कि “ऐसा बहाना ईमानदार देरी नहीं माना जा सकता।”
पीठ ने सुंदरम पिल्लै बनाम वी.आर. पत्ताभिरामन (1985) के सुप्रसिद्ध फैसले का हवाला देते हुए बताया कि “जानबूझकर डिफॉल्ट” वह स्थिति है जब किरायेदार जानबूझकर, सोची-समझी और निरंतर देरी करता है।
“किराया तय होने के छह वर्ष बाद भुगतान करना और किसी अदालत से स्थगन न लेना-ऐसा आचरण स्पष्ट रूप से जानबूझकर डिफॉल्ट है,” निर्णय में कहा गया।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलीय प्राधिकारी और मद्रास हाईकोर्ट के समान निष्कर्षों को बरकरार रखते हुए कहा कि मूल किरायेदार और उसके उत्तराधिकारी तमिलनाडु बिल्डिंग्स (लीज़ एंड रेंट कंट्रोल) एक्ट, 1960 की धारा 10(2)(i) के तहत जानबूझकर डिफॉल्ट के दोषी हैं।
अदालत ने अपील को “निराधार” बताते हुए खारिज कर दिया, लेकिन किरायेदारों को संपत्ति खाली करने के लिए छह महीने का समय दिया, बशर्ते वे दो सप्ताह के भीतर आवश्यक शपथपत्र दाखिल करें। ऐसा न करने पर मकान मालिक को तुरंत निष्पादन कार्यवाही शुरू करने की अनुमति होगी।
“हाईकोर्ट ने तथ्यों में पुनः दखल न देकर सही रुख अपनाया। उसका दृष्टिकोण तार्किक और त्रुटिरहित है,” न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा।
यह फैसला एक बार फिर यह सिद्ध करता है कि मुकदमे लंबित रहने से किराया भुगतान की जिम्मेदारी खत्म नहीं होती।
Case Title: K. Subramaniam (Died) through LRs K.S. Balakrishnan & Ors. v. M/s Krishna Mills Pvt. Ltd.
Case Number: Civil Appeal No. 2561 of 2025









