सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश के एक डिप्टी कलेक्टर को कड़ी फटकार लगाई है, जिन्होंने हाई कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन कर गुंटूर ज़िले में झुग्गियों को ध्वस्त कर दिया था। कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराए गए इस अधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई डिमोशन की नरम सजा को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
जस्टिस बीआर गवई और एजी मसीह की पीठ उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें हाई कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें डिप्टी कलेक्टर को दो महीने की साधारण कारावास की सजा दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारी को जेल से बचने के लिए डिप्टी तहसीलदार के पद पर काम करने का विकल्प दिया था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।
"हम उसकी करियर बचाना चाहते थे। लेकिन अगर वह नहीं चाहता, तो हम कुछ नहीं कर सकते। इससे उसके हाई कोर्ट के आदेशों के प्रति रवैये का पता चलता है," जस्टिस गवई ने कहा।
सीनियर एडवोकेट देवाशीष भरूका, जो अधिकारी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, ने अदालत को सूचित किया कि याचिकाकर्ता डिमोशन स्वीकार नहीं करना चाहता। कोर्ट ने इस रवैये से नाराज़ होकर गंभीर परिणामों की चेतावनी दी।
"हमने तुम्हारे बच्चों के बारे में सोचकर तुम्हें जेल से बचाना चाहा। लेकिन अगर तुम जाना चाहते हो, तो जाओ। दो महीने वहीं रहो। तुम्हारी नौकरी भी जाएगी," पीठ ने कहा।
जस्टिस गवई ने अधिकारी के व्यवहार पर नाराज़गी जताते हुए बताया कि इस कार्रवाई में 80 पुलिसकर्मी शामिल थे।
"जब 80 पुलिस वालों को लेकर लोगों के घर गिराए तब भगवान की याद नहीं आई आपको?" — जज ने कोर्ट में अधिकारी से पूछा।
कोर्ट ने बार-बार समझाने की कोशिश की लेकिन अधिकारी अपने फैसले पर अड़ा रहा, जिस पर कोर्ट ने कहा:
"हम उसके खिलाफ ऐसे कठोर टिप्पणियाँ पास करेंगे कि कोई नियोक्ता उसे नौकरी देने की हिम्मत नहीं करेगा।"
वर्तमान में अधिकारी प्रोटोकॉल निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। कोर्ट ने कहा कि उनका व्यवहार यह दर्शाता है कि उन्हें लगता है कि वे कानून से ऊपर हैं।
पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने नरमी दिखाते हुए केवल नोटिस जारी किया था, लेकिन साथ ही यह भी संकेत दिया था कि जेल की सजा, पीड़ितों को मुआवज़ा और डिमोशन अनिवार्य हो सकता है क्योंकि उनके कार्यों से कई गरीब परिवारों को बेघर होना पड़ा।
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मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 2013 में शुरू हुआ जब गुंटूर के झुग्गी निवासी आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट पहुंचे और घर की पट्टे देने की मांग की। हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि जब तक उनकी पात्रता तय न हो जाए, उन्हें बेदखल न किया जाए। फिर भी, 06.12.2013 और 08.01.2014 को झुग्गियों को जबरन तोड़ा गया, जिसमें 88 पुलिसकर्मी शामिल थे।
हाई कोर्ट ने तहसीलदार को कोर्ट आदेशों की जानबूझकर अवहेलना का दोषी पाया और दो महीने की जेल व ₹2000 का जुर्माना लगाया। तहसीलदार की अपील डिवीजन बेंच ने खारिज कर दी, क्योंकि उनका पक्ष अविश्वसनीय पाया गया।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस गवई ने गरीबों के घरों के विध्वंस पर चिंता जताई और पूछा कि उन पीड़ितों की क्या हालत हुई होगी।
"उसने लोगों को उनके घरों से निकाल दिया। हम उसके जैसे नहीं बनना चाहते," जस्टिस गवई ने सुनवाई से पहले कहा।
जस्टिस केवी विश्वनाथन ने भी अवैध तोड़फोड़ पर सवाल उठाए और पीड़ितों की स्थिति जाननी चाही।
हालांकि एक याचिकाकर्ता को सरकारी योजना के तहत पुनर्वास मिल गया था, कोर्ट ने माना कि यह कार्रवाई हाई कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन थी।
सुनवाई खत्म होने से पहले, कोर्ट ने सीनियर एडवोकेट भरूका के अनुरोध पर याचिकाकर्ता को समझाने के लिए और समय दिया। लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि न्यायिक आदेशों का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
"हम हाई कोर्ट के आदेशों का ऐसा अपमान नहीं सह सकते। बिना सजा दिए इसे नहीं छोड़ेंगे," — जस्टिस गवई ने सख्त टिप्पणी की।
अब यह मामला शुक्रवार तक के लिए स्थगित कर दिया गया है। कोर्ट ने संकेत दिया है कि अगर अधिकारी अपने रवैये में बदलाव नहीं लाते, तो उनकी नौकरी और आज़ादी दोनों ही खतरे में होंगी।
केस का शीर्षक: टाटा मोहन राव बनाम एस. वेंकटेश्वरलू और अन्य, एसएलपी(सी) संख्या 10056-10057/2025