दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 42 के अंतर्गत क्षेत्राधिकार निर्धारित करने के लिए रिट याचिका को “पूर्व आवेदन” नहीं माना जा सकता।
न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी ने स्पष्ट किया:
“रिट याचिका प्रशासनिक या कानूनी निर्णय को चुनौती देने के लिए होती है, न कि मध्यस्थता कार्यवाही शुरू करने या उसे नियंत्रित करने के लिए।”
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धारा 42 में जिस "आवेदन" की बात की गई है, वह अदालत में मध्यस्थता समझौते से संबंधित एक औपचारिक आवेदन को संदर्भित करता है — न कि संविधान के तहत दायर रिट याचिका को।
मामले की पृष्ठभूमि
साल 2006 में केंद्र सरकार ने 28.07.2006 को एक अधिसूचना जारी कर उत्तर प्रदेश के बागपत डिवीजन से बागपत जिले तक की भूमि का अधिग्रहण राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 की धारा 3A(1) के तहत शुरू किया।
हालांकि भूमि का कुछ हिस्सा विधिपूर्वक अधिग्रहित किया गया, लेकिन अन्य हिस्से का कब्ज़ा बिना अधिग्रहण प्रक्रिया के 08.02.2007 की अधिसूचना द्वारा ले लिया गया। मुआवजा न मिलने से नाराज़ ज़मीन मालिकों, जिनमें याचिकाकर्ता भी शामिल थे, ने दिल्ली उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की। उन्होंने इन अधिसूचनाओं को रद्द करने और मुआवज़ा या अतिरिक्त मुआवज़ा दिलवाने की मांग की।
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बाद में, कोर्ट के आदेश के अनुसार, ज़मीन मालिकों को 2006 के बाज़ार मूल्य के अनुसार मूल मुआवज़ा मिला, जो 27.05.2019 को ज़िलाधिकारी बागपत, उत्तर प्रदेश द्वारा जारी किया गया।
इस मुआवज़े से असंतुष्ट होकर, भूमि मालिकों ने राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम की धारा 3G(5) और 3G(7) के तहत ज़िला कलेक्टर, मेरठ डिवीजन के समक्ष अतिरिक्त मुआवज़े के लिए वाद (वाद संख्या 00747/2019) दायर किया। लेकिन इस वाद को 16.10.2020 को दिए गए निर्णय (“एवार्ड”) द्वारा खारिज कर दिया गया।
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इसके बाद याचिकाकर्ताओं ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के तहत दिल्ली उच्च न्यायालय में उक्त एवार्ड को चुनौती दी।
उत्तरदाताओं ने सबसे पहले क्षेत्राधिकार पर आपत्ति जताई। उनके मुख्य तर्क थे:
- विवादित भूमि बागपत, उत्तर प्रदेश में स्थित है।
- मूल मुआवज़ा बागपत के ज़िलाधिकारी द्वारा दिया गया था।
- पूरी मध्यस्थता कार्यवाही बागपत में हुई थी, और वही जमीन विवाद का केंद्र बिंदु है।
इसलिए, दिल्ली उच्च न्यायालय के पास इस याचिका को सुनने का कोई क्षेत्राधिकार नहीं है।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि:
- भूमि का अधिग्रहण केंद्र सरकार द्वारा किया गया था।
- उत्तरदाता नंबर 1 (एनएचएआई) का मुख्यालय दिल्ली में स्थित है।
- उन्होंने पहले भी इसी भूमि अधिग्रहण मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय में रिट याचिका (रिट याचिका संख्या 11920/2016) दायर की थी, जिसे अदालत ने स्वीकार भी किया और राहत दी थी।
इसलिए, उनका दावा था कि वह पिछली रिट याचिका धारा 42 के अंतर्गत “पूर्व आवेदन” मानी जानी चाहिए, और इस कारण से सिर्फ दिल्ली उच्च न्यायालय को ही इस याचिका की सुनवाई का अधिकार है।
अदालत ने कानूनी प्रावधानों और तथ्यों का गहराई से अध्ययन किया और कहा:
“मध्यस्थता अधिनियम की धारा 2 के अनुसार, वह न्यायालय प्रासंगिक होगा जिसे ऐसा वाद यदि सामान्य दीवानी वाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता तो वह उसे सुनने का क्षेत्राधिकार रखता।”
क्योंकि सभी मध्यस्थता कार्यवाहियां बागपत में हुईं और ज़मीन भी वहीं स्थित है, इसलिए दिल्ली उच्च न्यायालय के पास इस मामले में कोई क्षेत्राधिकार नहीं है।
इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने यह स्पष्ट किया:
“पूर्व कार्यवाही एक रिट याचिका थी। रिट याचिका को मध्यस्थता अधिनियम की धारा 42 के तहत ‘पूर्व आवेदन’ नहीं माना जा सकता।”
इस निष्कर्ष को बल देने के लिए, अदालत ने दीपांकर सिंह बनाम भारत सरकार (एनएचएआई के माध्यम से), 2019 SCC Online Del 11121 में दिए गए निर्णय पर भरोसा किया, जहाँ यह कहा गया था कि यदि भूमि और मध्यस्थता की कार्यवाही सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में हुई है, तो वहीं की अदालत के पास क्षेत्राधिकार होगा।
अंततः दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा:
“चूंकि ज़मीन बागपत में है और सारी मध्यस्थता कार्यवाहियां वहीं हुई हैं, इसलिए केवल वही अदालत जिसके क्षेत्र में बागपत आता है, उसे ही मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 के तहत याचिका सुनने का अधिकार है।”
अदालत ने क्षेत्राधिकार की कमी के आधार पर याचिका को खारिज कर दिया।
केस का शीर्षक - हरिराम एवं अन्य। वी. एनएचएआई
केस नंबर - ओ.एम.पी. (COMM) 86/2021
उपस्थिति-
याचिकाकर्ता के लिए - श्री प्रदीप गुप्ता, श्री परिणव गुप्ता और श्री हर्षवर्द्धन लोधी
प्रतिवादी के लिए - श्री अक्षय कुमार तिवारी और सुश्री शुभी धीमान, आर-1 और आर-2 के वकील।
दिनांक- 04.04.2025