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गलत अभियोजन के पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए कानूनी ढांचा बनाने की जरूरत: केरल हाईकोर्ट

Vivek G.

केरल हाईकोर्ट ने गलत अभियोजन के पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए कानूनी ढांचे की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया है, इसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए कानून आयोग की रिपोर्ट पर शीघ्र कार्रवाई की सिफारिश की है।

गलत अभियोजन के पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए कानूनी ढांचा बनाने की जरूरत: केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट ने गलत अभियोजन का शिकार हुए लोगों को उचित मुआवजा दिलाने के लिए एक स्पष्ट और सशक्त कानूनी प्रणाली की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया है। न्यायमूर्ति कौसर एदप्पागाथ ने कहा कि वर्तमान कानून इस विषय पर कोई प्रभावी उपाय प्रदान नहीं करता और ऐसे दोष सिद्ध मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं जो संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के अंतर्गत गारंटीकृत हैं।

"ग़ैरक़ानूनी अभियोजन, अवैध हिरासत, गिरफ़्तारी, और ग़लत सज़ा जैसे मामलों में बुनियादी मानवाधिकारों की सुरक्षा संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के अंतर्गत हर व्यक्ति को उपलब्ध है।” – न्यायमूर्ति कौसर एदप्पागाथ

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फिलहाल, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 273 और 399 के अंतर्गत केवल उन्हीं मामलों में मुआवजा मिलता है जहाँ अभियोजन या गिरफ़्तारी बिना आधार के की गई हो। लेकिन इनमें भी मुआवजे का दायित्व शिकायतकर्ता या सूचनादाता पर होता है, न कि राज्य सरकार पर।

हाईकोर्ट ने बताया कि ऐसे मामलों में एकमात्र राहत केवल संविधानिक अदालतों से अनुच्छेद 21 के तहत सार्वजनिक कानून के आधार पर मिलती है, जैसा कि नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य (1999) और महावीर बनाम हरियाणा राज्य (2025) जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है। इन मामलों में अदालत ने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर मुआवजा देने का अधिकार माना है।

अदालत ने भारत के विधि आयोग की 277वीं रिपोर्ट "गलत अभियोजन (न्याय की चूक): कानूनी उपाय" का विशेष उल्लेख किया। इस रिपोर्ट में एक समर्पित कानूनी तंत्र बनाने की सिफारिश की गई थी, जिसमें मौद्रिक और गैर-मौद्रिक सहायता जैसे काउंसलिंग, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं, रोजगार प्रशिक्षण आदि शामिल हों।

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"विधि आयोग की 277वीं रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को लागू करने का समय आ गया है ताकि गलत अभियोजन का शिकार हुए लोगों को मुआवजा दिया जा सके।" – केरल हाईकोर्ट

अदालत ने यह भी दोहराया कि न्याय प्रणाली का उद्देश्य निर्दोष लोगों की रक्षा करना और केवल उन्हीं को सज़ा देना होना चाहिए जिनका अपराध संदेह से परे सिद्ध हो चुका हो। ऐतिहासिक कानूनी सिद्धांतों का हवाला देते हुए अदालत ने बताया कि किसी निर्दोष को सज़ा देना न्याय का गंभीर उल्लंघन है।

"दस दोषियों को छोड़ देना बेहतर है बजाय इसके कि एक निर्दोष को सज़ा मिले।” – विलियम ब्लैकस्टोन

मामले की पृष्ठभूमि

इस मामले में याचिकाकर्ताओं को हत्या और अन्य अपराधों के लिए ट्रायल कोर्ट ने दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। लेकिन हाईकोर्ट में अपील पर उन्हें बरी कर दिया गया, क्योंकि जांच में पाया गया कि असल अपराध मुस्लिम कट्टरपंथी समूह जमात-इ-इहसानिया ने किया था।

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याचिकाकर्ताओं ने आगे की जांच और इस झूठे अभियोजन के लिए ₹50,000 मुआवजे की मांग करते हुए याचिका दायर की। जांच अधिकारी ने राज्य सरकार को मुआवजा देने और दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की।

हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को तीन महीने के भीतर इस सिफारिश पर निर्णय लेने का निर्देश दिया। साथ ही, यह भी कहा कि यदि सरकार की कार्रवाई से याचिकाकर्ता संतुष्ट नहीं होते हैं तो वे आगे कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं।

केस का शीर्षक: बाबूराजन बनाम केरल राज्य और अन्य एवं संबंधित मामला

याचिकाकर्ताओं के वकील: अधिवक्ता शैजान सी. जॉर्ज, एस. रेखा कुमारी, सजिथा जॉर्ज

प्रतिवादियों के लिए वकील: अधिवक्ता ग्रेशियस कुरियाकोस (सीनियर), सी.के. सुकेश (सीनियर), एम. अजय

केस नंबर: WP(C) 23348 और 23349 2013

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