गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट की एक भरी हुई अदालत में मरीज की मौत, अस्पताल की जवाबदेही और राज्य स्वास्थ्य नियामक की शक्तियों से जुड़ा एक भावनात्मक मामला सामने आया। इस केस के केंद्र में थे कौसिक पाल, जिन्होंने कोलकाता के बी.एम. बिड़ला हार्ट रिसर्च सेंटर में इलाज के बाद अपनी मां को खो दिया। अदालत के सामने सवाल सीधा था, लेकिन बेहद संवेदनशील - जब मरीज देखभाल में चूक होती है, तो फैसला कौन करेगा?
पृष्ठभूमि
कौसिक पाल की मां अराती पाल को मई 2017 में बिड़ला अस्पताल में भर्ती कराया गया था। पांच दिन के इलाज के बाद भी हालत में सुधार नहीं हुआ, तो डॉक्टरों ने उन्हें दूसरे अस्पताल में स्थानांतरित करने का फैसला किया। डिस्चार्ज पेपर में उनकी स्थिति “स्थिर” लिखी गई थी। अगली सुबह तड़के उन्हें दूसरे अस्पताल ले जाया गया, जहां 16 घंटे के भीतर उनकी मृत्यु हो गई।
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इसके बाद पाल ने पश्चिम बंगाल क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट रेगुलेटरी कमीशन का रुख किया और देरी से निदान, गलत इलाज और मरीज के परिजनों को गुमराह करने के आरोप लगाए। आयोग ने उनकी बात मानी और ₹20 लाख का मुआवज़ा तय किया। आयोग ने यह भी पाया कि इकोकार्डियोग्राफी जैसी अहम जांचें ऐसे लोगों से कराई गईं, जिनकी योग्यता मान्य नहीं थी।
अस्पताल ने इस आदेश को कलकत्ता हाईकोर्ट में चुनौती दी। जहां एकल न्यायाधीश ने आयोग के फैसले को बरकरार रखा, वहीं बाद में डिवीजन बेंच ने इसे पलटते हुए कहा कि डॉक्टरों की योग्यता और मेडिकल नेग्लिजेंस से जुड़े मामलों पर केवल राज्य मेडिकल काउंसिल ही फैसला कर सकती है।
इसी फैसले के खिलाफ मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
अदालत की टिप्पणियां
अपील की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति संजय करोल की अगुवाई वाली पीठ ने पश्चिम बंगाल क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट अधिनियम का गहराई से अध्ययन किया। अदालत ने साफ कहा कि आयोग की भूमिका केवल औपचारिक नहीं हो सकती।
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पीठ ने टिप्पणी की, “आयोग का अस्तित्व ही इसलिए है ताकि मरीज देखभाल के न्यूनतम मानकों को सुनिश्चित किया जा सके,” और कहा कि निगरानी का अर्थ यह भी है कि अस्पतालों में नियुक्त डॉक्टर और तकनीशियन वास्तव में योग्य हों।
हाईकोर्ट की इस राय को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया कि मरीज देखभाल और मेडिकल नेग्लिजेंस एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। अदालत के अनुसार, आयोग ने जानबूझकर मेडिकल नेग्लिजेंस के सवाल को नहीं छुआ और केवल सेवा में कमी, जैसे अयोग्य स्टाफ की नियुक्ति और भ्रामक डिस्चार्ज सारांश, तक खुद को सीमित रखा।
डिस्चार्ज नोट में मरीज की हालत “स्थिर” लिखे जाने पर अदालत ने सख्त रुख अपनाया। पीठ ने कहा कि इसे केवल एक गलती बताकर जिम्मेदारी से नहीं बचा जा सकता, खासकर तब जब मरीज के परिजन ऐसे दस्तावेजों के आधार पर अहम फैसले लेते हैं।
अदालत ने यह भी नोट किया कि मेडिकल काउंसिल की ओर से स्पष्ट रूप से बताया गया था कि संबंधित डॉक्टर की डिग्री मान्यता प्राप्त नहीं थी, जिससे आयोग के निष्कर्ष और मजबूत होते हैं।
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फैसला
अपील स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आयोग के 2018 के आदेश और एकल न्यायाधीश के फैसले को बहाल कर दिया। हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच का 15 दिसंबर 2023 का फैसला रद्द कर दिया गया।
अस्पताल को निर्देश दिया गया है कि वह आठ सप्ताह के भीतर कौसिक पाल को ₹20 लाख का मुआवज़ा अदा करे, साथ ही आयोग द्वारा तय की गई तारीख से 6 प्रतिशत ब्याज भी दे। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यह आदेश राज्य मेडिकल काउंसिल को मेडिकल नेग्लिजेंस की जांच करने से नहीं रोकता।
Case Title: Kousik Pal v. B.M. Birla Heart Research Centre & Ors.
Case No.: Civil Appeal arising out of SLP (C) No. 8365 of 2024 (2025 INSC 1487)
Case Type: Civil Appeal (Medical Negligence / Patient Care Compensation)
Decision Date: December 19, 2025









