सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को छत्तीसगढ़ से जुड़े एक पुराने हत्या मामले का पटाक्षेप करते हुए मनोज उर्फ मुन्ना को करीब दो दशक बाद दोषमुक्त कर दिया। खचाखच भरे अदालत कक्ष में सुनवाई के दौरान पीठ ने साफ कहा कि केवल शक, चाहे कितना भी मजबूत हो, ठोस सबूत की जगह नहीं ले सकता। यह अपील 2011 के उस हाईकोर्ट फैसले से जुड़ी थी, जिसमें हत्या और सबूत मिटाने के आरोप में उसे आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखी गई थी।
पृष्ठभूमि
मामला जून 2004 का है। ट्रैक्टर चालक युवराज सिंह पाटले का शव जली हुई हालत में मिला था। अभियोजन का कहना था कि मनोज ने अन्य आरोपियों के साथ मिलकर काम के बहाने युवराज को साथ ले गया और बाद में उसकी हत्या कर दी, ताकि ट्रैक्टर लूटकर पैसों का इंतजाम किया जा सके।
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ट्रायल कोर्ट ने इस कहानी को मानते हुए मुख्य रूप से उन गवाहों पर भरोसा किया, जिन्होंने कहा कि आरोपी को मृतक के साथ “आखिरी बार देखा गया” था। जहां पांच सह-आरोपियों को बरी कर दिया गया, वहीं मनोज को आईपीसी की धारा 302 और 201 के तहत दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई गई। बाद में हाईकोर्ट ने भी इसी निष्कर्ष को सही ठहराया।
अदालत की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट में बहस का केंद्र एक ही सवाल था-क्या केवल इस आधार पर किसी को दोषी ठहराया जा सकता है कि उसे मृतक के साथ आखिरी बार देखा गया था?
न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा ने पीठ की ओर से कहा कि यह पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है। अदालत ने माना कि मेडिकल रिपोर्ट से यह साबित होता है कि मौत हत्या थी और शरीर पर गंभीर जलने के निशान थे। लेकिन इतना भर पर्याप्त नहीं है।
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पीठ ने टिप्पणी की, “परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामलों में साक्ष्यों की कड़ी पूरी होनी चाहिए और वह केवल दोष की ओर ही इशारा करे।” अदालत ने यह भी कहा कि कथित मकसद-ट्रैक्टर लूटकर पैसे जुटाना-ठोस रूप से साबित नहीं हो पाया। न तो ट्रैक्टर बेचने का प्रयास दिखाया गया और न ही ऐसा कोई पुख्ता सबूत सामने आया।
“लास्ट सीन” सिद्धांत पर अदालत ने कहा कि यह अपने आप में कमजोर कड़ी है। जब तक आखिरी बार साथ देखे जाने और मौत के बीच का समय इतना कम न हो कि किसी और संभावना से इनकार हो जाए, तब तक केवल इसी आधार पर सजा नहीं दी जा सकती। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपी की चुप्पी या स्पष्टीकरण न देना अभियोजन की कमजोरियों को पूरा नहीं कर सकता।
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फैसला
अंततः अदालत ने माना कि साक्ष्य संदेह तो पैदा करते हैं, लेकिन वे निश्चितता की उस सीमा तक नहीं पहुंचते, जो दोषसिद्धि के लिए जरूरी है। आरोपी को संदेह का लाभ देते हुए पीठ ने ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों के फैसले रद्द कर दिए।
अदालत ने आदेश दिया, “अपील स्वीकार की जाती है,” और मनोज को सभी आरोपों से बरी करते हुए उसके जमानत बंधन समाप्त कर दिए।
Case Title: Manoj @ Munna vs. State of Chhattisgarh
Case No.: Criminal Appeal No. 1129 of 2013
Case Type: Criminal Appeal (Murder & Destruction of Evidence)
Decision Date: December 18, 2025









