भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए स्विस कंपनी ग्लेनकोर इंटरनेशनल एजी और भारतीय फर्म श्री गणेश मेटल्स के बीच हुए मध्यस्थता समझौते को वैध ठहराया है। अदालत ने स्पष्ट किया कि अगर कोई अनुबंध दोनों पक्षों द्वारा औपचारिक रूप से हस्ताक्षरित न भी हो, तो भी उनके आचरण और शर्तों की स्वीकृति उन्हें मध्यस्थता के लिए बाध्य कर सकती है।
मामले की पृष्ठभूमि
ग्लेनकोर, स्विट्ज़रलैंड स्थित एक खनन और कमोडिटी ट्रेडिंग कंपनी है। इसका व्यापार श्री गणेश मेटल्स के साथ था, जो हिमाचल प्रदेश के काला अंब में स्थित एक एकल स्वामित्व वाली फर्म है और जिंक अलॉयज़ का उत्पादन करती है।
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2011 और 2012 के बीच दोनों पक्षों ने चार अनुबंध किए थे, जिनमें प्रत्येक में लंदन कोर्ट ऑफ इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन (LCIA) के अंतर्गत विवादों को मध्यस्थता में भेजने की शर्त शामिल थी।
मार्च 2016 में दोनों पक्षों ने 6,000 मीट्रिक टन जिंक मेटल की आपूर्ति के लिए नया अनुबंध करने पर बातचीत की। ईमेल वार्ताओं के माध्यम से शर्तें तय हुईं, जिनमें कीमत लंदन मेटल एक्सचेंज (LME) के अंतिम 5 दिनों के औसत पर आधारित रखने का सुझाव श्री गणेश मेटल्स ने दिया।
इसके बाद ग्लेनकोर ने अनुबंध संख्या 061-16-12115-S दिनांक 11.03.2016 जारी किया और हस्ताक्षर कर श्री गणेश मेटल्स को काउंटरसिग्नेचर के लिए भेजा।
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हालांकि श्री गणेश मेटल्स ने हस्ताक्षर नहीं किए, लेकिन उन्होंने 2,000 मीट्रिक टन जिंक की आपूर्ति स्वीकार की, जिनके चालान उसी अनुबंध का उल्लेख करते थे। साथ ही, एचडीएफसी बैंक के माध्यम से स्टैंडबाय लेटर ऑफ क्रेडिट भी जारी किए गए जिनमें इसी अनुबंध का हवाला दिया गया।
2016 में जब लेटर ऑफ क्रेडिट और आपूर्ति को लेकर विवाद हुआ, तो श्री गणेश मेटल्स ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक वाणिज्यिक वाद दायर किया। इसमें लगभग ₹8 करोड़ की वसूली और ग्लेनकोर को लेटर ऑफ क्रेडिट भुनाने से रोकने की मांग की गई।
ग्लेनकोर ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 45 का हवाला देकर तर्क दिया कि 2016 अनुबंध में मौजूद मध्यस्थता खंड दोनों पक्षों पर बाध्यकारी है।
लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट (2017 में एकल न्यायाधीश और 2019 में डिवीजन बेंच) ने यह कहते हुए ग्लेनकोर की दलील खारिज कर दी कि अनुबंध पर श्री गणेश मेटल्स के हस्ताक्षर नहीं थे, इसलिए यह बाध्यकारी नहीं है।
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सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट से असहमति जताई और कहा कि मध्यस्थता समझौते पर हस्ताक्षर अनिवार्य नहीं हैं, यदि आचरण और संचार से सहमति स्पष्ट हो।
“सिर्फ इस आधार पर कि अनुबंध संख्या 061-16-12115-S पर उत्तरदाता नं.1 ने हस्ताक्षर नहीं किए, इसकी बाध्यता समाप्त नहीं हो जाती, जब दोनों पक्षों ने उस पर अमल किया हो, जिसमें आपूर्ति, चालान और लेटर ऑफ क्रेडिट शामिल हैं।” – न्यायमूर्ति संजय कुमार
अदालत ने यह भी कहा:
- श्री गणेश मेटल्स ने आपूर्ति स्वीकार की और अनुबंध से जुड़े लेटर ऑफ क्रेडिट जारी किए।
- ईमेल पत्राचार में संशोधित मूल्य निर्धारण शर्तों की स्वीकृति स्पष्ट थी।
- स्वयं वाणिज्यिक वाद भी उन्हीं लेटर ऑफ क्रेडिट पर आधारित था जो इसी अनुबंध से जुड़े थे।
सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व निर्णयों जैसे गोविंद रबर लिमिटेड बनाम लुइस ड्रेफस कमोडिटीज एशिया प्राइवेट लिमिटेड और कैरेवेल शिपिंग सर्विसेज प्रा. लि. बनाम प्रीमियर सी फूड्स एग्ज़िम प्रा. लि. का हवाला दिया, जिनमें कहा गया था कि यदि पक्ष अनुबंध पर अमल करते हैं तो बिना हस्ताक्षर के भी लिखित मध्यस्थता समझौता बाध्यकारी होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने ग्लेनकोर की अपील स्वीकार कर ली, दिल्ली हाईकोर्ट के 2017 और 2019 के आदेशों को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि विवादों को 2016 अनुबंध की मध्यस्थता शर्त के अनुसार मध्यस्थता में भेजा जाए।
यह फैसला इस सिद्धांत को मजबूत करता है कि व्यापारिक अनुबंधों में हस्ताक्षर से अधिक पक्षों का आचरण और अमल मायने रखता है।
मामला: ग्लेनकोर इंटरनेशनल एजी बनाम श्री गणेश मेटल्स एवं अन्य
मामला संख्या: सिविल अपील संख्या 11067/2025 (विशेष अनुमति याचिका (सी) संख्या 27985/2019 से उत्पन्न)
निर्णय की तिथि: 25 अगस्त 2025
अपीलकर्ता: ग्लेनकोर इंटरनेशनल एजी (स्विस कंपनी, खनन एवं कमोडिटी ट्रेडिंग)
प्रतिवादी:
- मेसर्स श्री गणेश मेटल्स (भारतीय स्वामित्व वाली, जिंक मिश्र धातु उत्पादक, हिमाचल प्रदेश)
- एचडीएफसी बैंक (स्टैंडबाय लेटर्स ऑफ क्रेडिट जारी करने से संबंधित)