एक ऐसी सुनवाई जिसमें समय उम्मीद से थोड़ा ज़्यादा लग गया और बीच-बीच में पीठ ने कुछ बिंदुओं पर थोड़े सख़्त अंदाज़ में स्पष्टीकरण भी मांगे, वहाँ मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने 13 नवंबर 2025 को एक 2015 के प्रशासनिक आदेश को रद्द करते हुए कर्मचारी श्यामा वर्मा को उनके जूनियर कर्मचारियों के बराबर नियमितीकरण लाभ देने का निर्देश दिया। जस्टिस दीपक खोत की एकल पीठ ने कहा कि अधिकारियों का रवैया “निष्पक्षता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता” और खुद उनके रिकॉर्ड से मेल नहीं खाता।
पृष्ठभूमि
वर्मा की कहानी तीन दशक से भी पहले शुरू होती है। उन्होंने 9 अप्रैल 1990 को दैनिक वेतनभोगी के रूप में जॉइन किया, जबकि दो निजी प्रतिवादी-जो उनके जूनियर माने गए-24 जुलाई 1991 को इसी तरह की सेवा में आए। लेकिन 1992 में विभागीय प्रक्रिया के माध्यम से जूनियर कर्मचारियों को नियमित कर दिया गया, जबकि वर्मा को 2008 में ही नियमितीकरण मिला-वह भी ऐसी कठोर शर्त के साथ, जिसमें उनसे वरिष्ठता और वित्तीय लाभ छीन लिए गए।
बाद में 2013 में हाई कोर्ट ने इस शर्त को हटा दिया और अधिकारियों को उनका मामला पुनः विचारने को कहा। विभागीय समिति ने शुरुआत में उन्हें समान लाभ देने की सिफारिश भी की थी, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से दूसरी बैठक बुलाकर इस निर्णय को उलट दिया गया, वह भी बिना यह बताए कि पहली बैठक के निष्कर्षों को क्यों अनदेखा किया गया। इसी दूसरी रिपोर्ट के आधार पर 30 सितंबर 2015 का आदेश जारी किया गया—जिसे अब कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया है।
अदालत की टिप्पणियाँ
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने बार-बार राज्य के विरोधाभासी रुख पर प्रश्न उठाए। एक मौके पर न्यायाधीश ने कहा कि प्रस्तुत स्पष्टीकरण “रिकॉर्ड पर उपलब्ध दस्तावेज़ों से मेल नहीं खाता”, क्योंकि राज्य कभी इन जूनियर कर्मचारियों को नियमित नियुक्त बताता रहा और कभी उन्हें उसी अवधि में दैनिक वेतनभोगी कहता रहा।
पीठ ने ध्यान दिलाया कि 1992 की नियुक्ति आदेश में कहीं यह उल्लेख नहीं था कि जूनियर कर्मचारी पहले से नियमित पद पर नियुक्त थे और केवल प्रशासनिक स्वीकृति के इंतज़ार में थे। आदेश में कहा गया, “पीठ ने टिप्पणी की, ‘यदि वे 1991 में नियमित पद पर नियुक्त थे तो 1992 में फिर से चयन प्रक्रिया क्यों चलाई गई? यह रुख न तो तार्किक है और न ही स्वीकार्य।’”
कोर्ट ने समिति की कार्यवाही की जांच करते हुए यह भी पाया कि दूसरी बैठक के मिनट्स किसी एक व्यक्ति द्वारा लिखे गए प्रतीत हुए, जिन्हें बाद में समिति की सामूहिक राय दिखाने के लिए संशोधित किया गया। पहली बैठक में लिए गए बहुमत के निर्णय पर चर्चा तक नहीं की गई। पीठ ने इसे “सत्ता के रंगीन इस्तेमाल” (colourable exercise of power) जैसा बताते हुए टिप्पणी की कि यह कर्मचारी को उसके वैध अधिकारों से वंचित करने का प्रयास दिखता है।
निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के Amita v. Union of India (2005) मामले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 14 का अर्थ है समान परिस्थिति वालों के साथ समान व्यवहार करना। जस्टिस खोत ने टिप्पणी की कि प्रशासनिक निकायों को भेदभाव से बचना चाहिए, और “अतार्किकता तथा पक्षपात प्रशासनिक प्रक्रिया को दूषित करते हैं।”
निर्णय
2015 के आदेश को कानूनी रूप से अस्थिर पाते हुए हाई कोर्ट ने उसे पूर्णतः रद्द कर दिया और अधिकारियों को निर्देश दिया कि श्यामा वर्मा को उनके जूनियर कर्मचारियों के समान नियमितीकरण लाभ, वरिष्ठता और संबंधी सभी अधिकार प्रदान किए जाएँ। इसके साथ ही अदालत ने याचिका का निपटारा कर दिया, जिससे यह लंबा विवाद-जो कई दशकों और कई समिति बैठकों में उलझा रहा-अंततः समाप्त हुआ।
Case Title: Shyama Verma vs. State of Madhya Pradesh & Others
Court: High Court of Madhya Pradesh, Jabalpur Bench
Case Number: Writ Petition No. 5855 of 2018
Judge: Hon’ble Justice Deepak Khot
Petitioner’s Claim:
- Quash the order dated 30.09.2015
- Grant seniority and regularisation benefits equal to Respondents No. 4 & 5
Date of Order: 13 November 2025









