जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (यूएपीए) की धारा 13 के तहत जमानत देने पर कोई कानूनी रोक नहीं है। कोर्ट ने कहा कि यूएपीए की धारा 43-डी(5) में जो कठोर शर्तें हैं, वे धारा 13 पर लागू नहीं होतीं क्योंकि यह अध्याय III के अंतर्गत आती है।
“धारा 13 के तहत अपराध धारा 43-डी(5) के दायरे में नहीं आता। इसलिए, अदालतें सामान्य सीआरपीसी की धाराओं के तहत जमानत पर विचार कर सकती हैं,” कोर्ट ने कहा।
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मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला समीऱ अहमद कोका से जुड़ा है, जिन पर पहले यूएपीए की कई धाराओं के तहत आरोप लगे थे। उन पर आरोप था कि वह प्रतिबंधित आतंकी संगठन टीआरएफ (The Resistance Front) के ओवर ग्राउंड वर्कर (OGW) थे और युवाओं को भड़काने एवं आतंकी गतिविधियों के लिए लॉजिस्टिक सहायता देने में शामिल थे।
जांच के दौरान सह-आरोपियों से डिजिटल सामग्री और आपत्तिजनक पोस्टर जब्त किए गए, और समीऱ का नाम भी सामने आया। हालांकि, एनआईए अदालत ने उन्हें यूएपीए की गंभीर धाराओं 18, 18-बी, 39 और 40 से मुक्त कर केवल धारा 13 के तहत आरोप तय किए।
“प्रतिवादी को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक दोष सिद्ध न हो जाए, और जब आरोपित अपराध की सजा सात साल तक है, तो वह जमानत पाने का हकदार था,” कोर्ट ने कहा।
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ट्रायल कोर्ट ने उन्हें जमानत दी थी, जिसे जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन ने चुनौती दी थी। लेकिन हाईकोर्ट ने अपील खारिज कर दी, यह कहते हुए कि चूंकि केवल धारा 13 लागू है और समीऱ से कोई आपत्तिजनक सामग्री बरामद नहीं हुई, इसलिए जमानत देना उचित था।
न्यायमूर्ति संजय परिहार ने यह निर्णय सुनाते हुए कहा कि संवैधानिक अदालतों को यूएपीए जैसे मामलों में भी जमानत देने की शक्ति है।
“यूएपीए या सीआरपीसी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो धारा 13 के तहत जमानत देने से रोकता हो। धारा 43-डी(5) केवल अध्याय IV और VI के अपराधों पर लागू होती है,” कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले Union of India v. K. A. Najeeb (2021) और Thawha Fasal v. Union of India (2021) का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि ट्रायल में देरी होने पर संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए जमानत दी जा सकती है।
यह भी कहा गया कि ट्रायल कोर्ट ने सबूतों की जांच नहीं की थी, क्योंकि यह फैसला चार्ज/डिसचार्ज स्टेज के बाद आया था और इससे अभियोजन पक्ष को कोई नुकसान नहीं हुआ।
“आरोप गंभीर थे, लेकिन न तो कोई पूर्व आपराधिक इतिहास था और न ही कोई बरामदगी हुई। लंबे समय तक हिरासत रखना पूर्व-ट्रायल सजा के समान होता,” कोर्ट ने कहा।
अंत में, हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को वैध ठहराते हुए कहा कि वह कानून के अनुरूप था और उसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
मामले का शीर्षक: केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर बनाम समीऱ अहमद कोका (PS Chanpora द्वारा)