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मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति की "इच्छा और प्राथमिकताएं" तय करने की व्यवस्था कानून में नहीं, कोर्ट ने निभाई अभिभावक की भूमिका : इलाहाबाद हाईकोर्ट

Shivam Y.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मानसिक रूप से विकलांग महिला के लिए प्रतिनिधि नियुक्त किया, यह कहते हुए कि मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 में इस संबंध में स्पष्ट व्यवस्था नहीं है। कोर्ट ने parens patriae के रूप में भूमिका निभाई।

मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति की "इच्छा और प्राथमिकताएं" तय करने की व्यवस्था कानून में नहीं, कोर्ट ने निभाई अभिभावक की भूमिका : इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 में मौजूद एक महत्वपूर्ण कानूनी खामी को रेखांकित करते हुए कहा कि मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति की "इच्छा और प्राथमिकताएं" तय करने के लिए कोई स्पष्ट मानक या प्रक्रिया अधिनियम में नहीं दी गई है। ऐसे मामलों में अदालत को parens patriae (पालक अभिभावक) के रूप में हस्तक्षेप करना पड़ता है।

न्यायमूर्ति राजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने यह टिप्पणी तब की जब याचिकाकर्ता सौरभ मिश्रा ने अपनी मौसी, जो 75% मानसिक विकलांगता से पीड़ित हैं, के प्रतिनिधि के रूप में नामित किए जाने की मांग की। वह अविवाहित हैं और अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्हें पारिवारिक पेंशन मिल रही थी। मां का देहांत पहले ही हो चुका था।

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अदालत ने कहा:

“मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम में ‘सर्वोत्तम हित’ तय करने के लिए कुछ मानक तो हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि ‘इच्छा और प्राथमिकता’ क्या मानी जाएगी। यहां तक कि धारा 14(1) की व्याख्या में भी इस संबंध में कोई दिशा-निर्देश नहीं दिए गए हैं।”

मांसिक स्वास्थ्य पुनरवलोकन बोर्ड ने याचिकाकर्ता की धारा 14 के तहत दी गई अर्जी इस आधार पर खारिज कर दी कि उनके खिलाफ दो आपराधिक मामले लंबित हैं। लेकिन हाईकोर्ट ने यह आधार खारिज करते हुए कहा कि वे अपराध न तो जघन्य थे और न ही नैतिक पतन से जुड़े थे। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि बोर्ड द्वारा बाद में दाखिल हलफनामे के आधार पर निर्णय को सही नहीं ठहराया जा सकता।

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कोर्ट ने धारा 4 और 5(1)(c) का हवाला देते हुए कहा कि हर व्यक्ति, चाहे वह मानसिक रूप से अस्वस्थ हो, को निर्णय लेने की क्षमता मानी जाती है जब तक कि कुछ और सिद्ध न हो। इस मामले में चूंकि कोई अग्रिम निर्देश (Advance Directive) नहीं था, इसलिए धारा 14(4)(d) के तहत बोर्ड या कोर्ट द्वारा उपयुक्त व्यक्ति की नियुक्ति की जा सकती है।

“चूंकि संबंधित महिला अपनी मानसिक और शारीरिक स्थिति के कारण इच्छा या प्राथमिकता व्यक्त करने में असमर्थ हैं, ऐसे में कोर्ट को उनकी सुरक्षा हेतु parens patriae के रूप में आगे आना पड़ा।”

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कोर्ट ने आगे कहा कि अधिनियम में ना तो आर्थिक मामलों के प्रबंधन की व्यवस्था है और ना ही प्रतिनिधियों की नियुक्ति के लिए कोई स्पष्ट प्रक्रिया। ऐसी स्थिति में अदालतें ही प्रतिनिधि नियुक्त करती हैं।

कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता न केवल महिला का निकट संबंधी (भांजा) है बल्कि उसकी देखभाल भी कर रहा है। अन्य उत्तराधिकारियों ने भी कोई आपत्ति नहीं जताई। इसके आधार पर कोर्ट ने पूर्व में पारित अस्वीकृति आदेश को रद्द करते हुए उसे प्रतिनिधि नियुक्त किया।

कोर्ट ने निर्देश दिया:

“याचिकाकर्ता महिला की दैनिक देखभाल, इलाज, आर्थिक मामलों आदि के लिए सभी निर्णय लेने के लिए अधिकृत होंगे, लेकिन किसी भी अचल संपत्ति के हस्तांतरण से पहले बोर्ड की पूर्व स्वीकृति आवश्यक होगी।”

याचिका को मंजूरी दे दी गई।

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मुख्य उद्धरण (Highlights):

“जब कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं होती, तब अदालत को मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति के हितों की रक्षा हेतु parens patriae के रूप में हस्तक्षेप करना होता है।”

“मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम में इच्छाओं और प्राथमिकताओं को तय करने की कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे कानून में स्पष्ट शून्यता उत्पन्न होती है।”

मामला: सौरभ मिश्रा बनाम राज्य उत्तर प्रदेश व अन्य

मामला संख्या: WRIT - C No. - 10898 of 2024

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