गुरुवार को भरे हुए अदालत कक्ष में सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना के वन क्षेत्र से जुड़े एक लंबे समय से चले आ रहे भूमि विवाद को निर्णायक रूप से समाप्त कर दिया। मामला गुर्रमगुडा फॉरेस्ट ब्लॉक की 102 एकड़ भूमि से जुड़ा था, जो जागीर उन्मूलन, वन अधिसूचनाओं और कई अदालतों से गुजरते हुए लगभग सात दशक पुराना हो चुका था। सुनवाई के अंत में पीठ ने साफ कर दिया कि संक्षिप्त वन कार्यवाही के जरिए जटिल स्वामित्व विवाद तय नहीं किए जा सकते।
पृष्ठभूमि
यह विवाद साहेब नगर कलां गांव के सर्वे नंबर 201/1 से जुड़ा है, जो अब रंगा रेड्डी जिले का हिस्सा है। हैदराबाद रियासत में जागीरों के उन्मूलन के बाद यह भूमि सरकार में निहित हो गई थी। वर्ष 1953 में सर्वे नंबर 201 का बड़ा हिस्सा वन विभाग को सौंप दिया गया और 1970 के दशक की शुरुआत में 102 एकड़ भूमि को तेलंगाना वन अधिनियम के तहत गुर्रमगुडा फॉरेस्ट ब्लॉक में शामिल करने के लिए अधिसूचित किया गया।
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कई दशकों बाद, मीर जाफर अली खान के कानूनी उत्तराधिकारियों ने, खुद को सालार जंग तृतीय का उत्तराधिकारी बताते हुए, वन सेटलमेंट ऑफिसर (एफएसओ) के समक्ष दावा पेश किया। उनका कहना था कि यह भूमि “अरज़ी-मक्ता” है, यानी निजी रूप से खरीदी गई जमीन, न कि जागीर या सरकारी भूमि। 2014 में एफएसओ ने इस दावे को स्वीकार कर लिया और भूमि को वन ब्लॉक से बाहर करने का आदेश दिया। इस आदेश को जिला न्यायाधीश और बाद में तेलंगाना हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा।
इसके बाद तेलंगाना राज्य ने इन निष्कर्षों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
अदालत की टिप्पणियाँ
पीठ ने वन सेटलमेंट ऑफिसर की शक्तियों और दावे की प्रकृति का बारीकी से परीक्षण किया। अदालत ने कहा कि तेलंगाना वन अधिनियम की धारा 10 के तहत होने वाली कार्यवाही संक्षिप्त प्रकृति की होती है। पीठ ने टिप्पणी की, “वन सेटलमेंट ऑफिसर मौजूदा अधिकारों से जुड़े दावों पर विचार कर सकता है, लेकिन वह दीवानी अदालत की तरह अंतिम रूप से स्वामित्व तय नहीं कर सकता।”
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अदालत इस बात से भी खासा असंतुष्ट दिखी कि पूर्व के न्यायिक निर्णयों को कैसे नजरअंदाज कर दिया गया। पीठ ने याद दिलाया कि पहले के मुकदमों में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट कर चुके हैं कि सर्वे नंबर 201 से जुड़े ऐसे ही दावे असफल रहे थे और राज्य ने समय के साथ अपना अधिकार मजबूत कर लिया था। केवल इस आधार पर कि वर्तमान दावेदार उस समय पक्षकार नहीं थे, स्वामित्व का प्रश्न वन कार्यवाही के जरिए दोबारा नहीं खोला जा सकता।
अरज़ी-मक्ता होने के दावे पर भी अदालत आश्वस्त नहीं हुई। अदालत ने कहा कि जागीर उन्मूलन के बाद भूमि तब तक राज्य में निहित रहती है जब तक उसे विधि अनुसार मुक्त न किया जाए। दावेदारों द्वारा प्रस्तुत पुराने पत्रों और राजस्व रिकॉर्ड के आधार पर वैधानिक निहितीकरण या पहले से दिए गए बाध्यकारी निष्कर्षों को नहीं बदला जा सकता।
पीठ ने प्रक्रिया संबंधी खामियों की ओर भी इशारा किया और कहा कि एफएसओ के समक्ष राज्य का सही ढंग से प्रतिनिधित्व नहीं हुआ। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि मामला केवल तकनीकी आधार पर तय नहीं किया जा रहा है। असली समस्या अधिकार क्षेत्र की है। जैसा कि पीठ ने कहा, “जटिल और विवादित स्वामित्व प्रश्नों का निपटारा उन संक्षिप्त जांचों में नहीं किया जा सकता, जो केवल वन सेटलमेंट के लिए निर्धारित हैं।”
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निर्णय
राज्य की अपील स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वन सेटलमेंट ऑफिसर, जिला न्यायाधीश और तेलंगाना हाईकोर्ट के आदेशों को रद्द कर दिया। अदालत ने कहा कि सर्वे नंबर 201/1 की 102 एकड़ भूमि को वन सेटलमेंट कार्यवाही के जरिए गुर्रमगुडा फॉरेस्ट ब्लॉक से बाहर नहीं किया जा सकता और भूमि की स्थिति राज्य के पक्ष में बहाल कर दी।
Case Title: The State of Telangana v. Mir Jaffar Ali Khan (Dead) through LRs & Others
Case No.: Civil Appeal No. 9996 of 2025
Case Type: Civil Appeal (Forest Land / Title Dispute)
Decision Date: 2025








