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सुप्रीम कोर्ट ने अख़्तर अली और प्रेम पाल को 2014 हल्द्वानी नाबालिग हत्याकांड में बरी किया, सबूतों पर संदेह जताया

Vivek G.

सुप्रीम कोर्ट ने 2014 हल्द्वानी नाबालिग हत्याकांड में अख़्तर अली और प्रेम पाल को सबूतों में संदेह के आधार पर बरी किया।

सुप्रीम कोर्ट ने अख़्तर अली और प्रेम पाल को 2014 हल्द्वानी नाबालिग हत्याकांड में बरी किया, सबूतों पर संदेह जताया

बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाते हुए अख़्तर अली (उर्फ अली अख़्तर, शमीम और राजा उस्ताद) और सह-आरोपी प्रेम पाल वर्मा की सज़ा को रद्द कर दिया। नैनीताल की ट्रायल कोर्ट और बाद में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने दोनों को 2014 में हल्द्वानी की नाबालिग लड़की की बर्बर हत्या और हमले के मामले में दोषी ठहराया था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अभियोजन की कड़ी में गंभीर खामियां पाईं और दोनों की रिहाई का आदेश दिया।

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पृष्ठभूमि

यह मामला लगभग एक दशक पहले उत्तराखंड को झकझोर गया था, जब नवंबर 2014 में गौला नदी क्षेत्र से एक बच्ची का शव बरामद हुआ। ट्रायल कोर्ट ने 40 से अधिक गवाहों की गवाही और फोरेंसिक साक्ष्यों की समीक्षा के बाद 2016 में अख़्तर अली को फांसी की सज़ा सुनाई और प्रेम पाल वर्मा को भी संबंधित धाराओं में दोषी ठहराया। हाई कोर्ट ने 2019 में इन सज़ाओं को बरकरार रखा, हालांकि कुछ आरोप हटाए गए थे। इसके बाद मामला विशेष अनुमति याचिका के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट पहुँचा।

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न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, संजय करोल और संदीप मेहता की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने सबूतों की बारीकी से जांच की। डीएनए नमूनों, गिरफ्तारी की प्रक्रिया और फोरेंसिक सामग्री के प्रबंधन पर गंभीर सवाल खड़े हुए।

फैसले में वीर्य नमूनों में विरोधाभास की ओर इशारा किया गया—जहाँ गर्भाशय ग्रीवा (सर्वाइकल) स्वैब कथित तौर पर अख़्तर अली के डीएनए से मेल खाता बताया गया, वहीं अन्य अहम नमूनों और कपड़ों पर ऐसे निशान नहीं मिले। अदालत ने कहा, “इतने बड़े विरोधाभासों को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। छेड़छाड़ की संभावना स्पष्ट है।”

न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत “अंतिम बार देखे जाने का सिद्धांत” कमजोर था, गवाहियों में देरी और असंगति पाई गई। इसके अलावा, अख़्तर अली का कथित अतिरिक्त-न्यायिक इकबालिया बयान, जिसके आधार पर प्रेम पाल वर्मा को फंसाया गया, अविश्वसनीय माना गया। जजों ने चेताया कि मौत की सज़ा जैसे मामलों में दोषसिद्धि केवल बेदाग़ और ठोस सबूतों पर आधारित होनी चाहिए।

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पीठ ने टिप्पणी की, “मृत्युदंड की अपरिवर्तनीय प्रकृति सबसे उच्च स्तर के प्रमाण की मांग करती है। किसी भी संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाना चाहिए।”

फैसला

विस्तृत समीक्षा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि अभियोजन अपना मामला संदेह से परे साबित करने में नाकाम रहा। 2016 में ट्रायल कोर्ट और 2019 में हाई कोर्ट द्वारा दी गई दोषसिद्धियाँ निरस्त कर दी गईं।

अख़्तर अली और प्रेम पाल वर्मा दोनों को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और आदेश दिया गया कि यदि वे किसी अन्य मामले में वांछित नहीं हैं तो उन्हें तुरंत रिहा किया जाए। अदालत ने कहा, “परिस्थितियों की कथित कड़ी टूट चुकी है,” और दोनों की अपीलें मंज़ूर कीं।

मामला: अख्तर अली @ अली अख्तर @ शमीम @ राजा उस्ताद और प्रेम पाल वर्मा बनाम उत्तराखंड राज्य (2025 आईएनएससी 1097)

अपीलकर्ता:

  • अख्तर अली @ अली अख्तर @ शमीम @ राजा उस्ताद
  • प्रेम पाल वर्मा

प्रतिवादी: उत्तराखंड राज्य

फैसले की तारीख: 2025

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